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४२६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा भोजन यावदाथिक-मिश्र है। पाखण्डी और अपने लिए एक साथ पकाया जाने वाला भोजन पाखण्डि-मिश्र है। जो भोजन केवल साधु और अपने लिए एक साथ पकाया जाय वह साधु-मिश्र है।'
(५) स्थापन-श्रमण के लिए दुग्ध आदि पृथक् कर रख देना।
(६) प्राभृतिका-श्रमण को सन्निकट के ग्राम आदि में आया हुआ जानकर श्रमण को विशिष्ट आहार देने की इच्छा से जीमणवार आदि के दिन आगे-पीछे कर देना।
(७) प्रादुष्करण-अंधकारयुक्त स्थान में दीपक आदि का प्रकाश करके भोजन देना।
(८) क्रीत--साधु के लिए खरीद कर लाना। () प्रामित्य-साधु के लिए उधार लाना। (१०) परिवर्तित-श्रमण के लिए परिवर्तन करके लाना। (११) अभिहत-श्रमण के लिए दूर से लाकर देना।
(१२) उद्भिन्न-श्रमण के लिए लिप्त-पात्र का मुख खोल कर घृत आदि देना।
उद्भिन्न-पिहित-उद्भिन्न और कपाट-उद्भिन्न रूप से दो प्रकार का है। चपड़ी आदि से बन्द पात्र का मुंह खोलना 'पिहित-उद्भिन्न' है। बन्द किवाड़ का खोलना 'कपाट उद्भिन्न है। पिधान सचित्त और अचित्त दोनों का हो सकता है। उसे श्रमण के लिए खोलने और बन्द करने में हिंसा की सम्भावना है। अत: पिहितउद्भिन्न भिक्षा का निषेध किया गया है। किवाड़ खोलने से भी अनेक जीवों के वध की सम्भावना रहती है अतः कपाटउद्भिन्न भिक्षा का भी निषेध है।
(१३) मालापहृत-ऊपर की मंजिल से या छींके आदि से उतार कर देना।
मालापहृत के तीन प्रकार हैं-(१) ऊर्ध्व मालापहृत-ऊपर से उतारा हुआ। (२) अधोमालापहृत-भूमिगृह से लाया हुआ। तिर्यग्मालापहृत-ऊंडे बर्तन या कोठे आदि में से झुककर निकाला हुआ।
१ स्थानांगसूत्र ५५२०० अभयदेववृत्ति २ समणाति वणीयगा ३ स्थानांगसूत्र, अभयदेववृत्ति २२००
-बशव० अगस्त्यसिंहचूर्णि, पृ० ११३