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पिण्डनिर्युक्ति
पिण्ड शब्द 'पिडि संघाते' धातु से बना है । अन्वयार्थ की दृष्टि से सजातीय या विजातीय ठोस वस्तुओं के एकत्रित होने को पिण्ड कहा जाता है । सामयिक दृष्टि से तरल वस्तु को पिण्ड कहा गया है। आचारांग में पानी की एषणा के अर्थ में पिण्डेषणा शब्द का प्रयोग हुआ है ।" पिण्डनिर्युक्ति में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इन सभी के लिए पिण्ड शब्द व्यवहृत हुआ है ।" श्रमण के ग्रहण करने योग्य आहार को पिण्ड कहा गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ में उसका विवेचन है। उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण - इसमें ये आठ अधिकार हैं। इसमें ६७१ गाथाएं हैं। निर्युक्ति और भाष्य की गाथाएँ परस्पर मिल चुकी हैं। जिनका पृथक्करण करना कठिन हो गया है। प्रस्तुत नियुक्ति के रचयिता भद्रबाहु माने जाते हैं। दशवैकालिकसूत्र के पाँचवें अध्ययन का नाम पिण्डेषणा है । प्रस्तुत अध्ययन पर भद्रबाहु ने जो नियुक्ति लिखी वह बहुत ही विस्तृत हो जाने से उसे आचार्यों ने पृथक आगम के रूप में मान्यता दे दी। इस पर आचार्य मलयगिरि ने बृहद्वृत्ति और वीराचार्य ने लघुवृत्ति का निर्माण किया है ।
पिण्ड के नौ प्रकार हैं- पृथ्वीकाय, अष्काय, तेजस्काय, वायुकाय, और पंचेन्द्रिय । इन नौ के इनमें सीपी, शंख व सर्पदंश
वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय सचित्त, अचित्त और मिश्र भेद किये गये हैं। के जहर को शमन करने के लिए दीमकों के गृह की मिट्टी, वमन की उपशान्ति हेतु मक्खी की विष्टा, टूटी हुई हड्डी को जोड़ने के लिए चर्म, अस्थि, दाँत, नख; पथभ्रष्ट श्रमण को बुलाने के लिए सींग और कुष्ठ आदि रोगों के निवारणार्थं गोमूत्र आदि का उपयोग श्रमण के लिए विहित बताया है।
१ आचारांग उद्देशक ७
२ पिण्डनियुक्ति, गा० ६