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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य ४२३ चारित्र का उपघात होता है उस अनायतन स्थान को पापभीरु श्रमण परित्याग करदे । अनायतनद्वार के बाद प्रतिसेवनाद्वार है। मूलगुण प्रतिसेवना और उत्तरगुण प्रतिसेवना के भेद-प्रभेदों की चर्चा की गई है। मूलगुण प्रतिसेवना के पंचमहाव्रत और छठा रात्रि-भोजन ये छह स्थान हैं और उत्तरगुण प्रतिसेवना के उद्गम, उत्पादना, एषणा ये तीन स्थान हैं। प्रतिसेवना, मइलणा, भङ्ग, विराधना, स्खलना, उपघात, अशुद्धि, सबलीकरण ये सभी पर्यायवाची हैं। आलोचना के भी मूलगुण और उत्तरगुण ये दो भेद हैं। मूलगुण और उत्तरगुण आलोचना भी चतुष्कर्ण वाली होती है-आलोचना करने वाले के दो कर्ण और आलोचना सुनने वाले के दो कर्ण। आलोचना के विकटना, शुद्धि, सद्भावदलना, निन्दना, गरहणा, विउट्टण शल्युद्धरणा-ये एकार्थक नाम बताये हैं। आलोचना बालक के समान सरल होकर करनी चाहिए। जो सरल होकर आलोचना करता है उसी की विशुद्धि होती है। विशुद्धि द्वार में इसी पर चिन्तन किया गया है। शल्यरहित होकर जो गुरु के समक्ष आलोचना करता है वह आराधक होकर मुक्ति का वरण करता है । १ णाणस्स दंसणस्स य चरणस्स य जत्थ होइ उवधातो। बज्जेज्जऽवज्जभीरू अणाययण वज्जओ खिप्पं ।। -ओधनियुक्ति, गा०७७८
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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