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४२२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा डाला गया है उन्हीं का प्रकारान्तर से यहाँ वर्णन किया गया है। भिक्षा की अच्छी तरह से प्रतिलेखना करनी चाहिए। गुरुजनों को भिक्षा दिखाकर जहाँ से भिक्षा लाया हो उसकी आलोचना करनी चाहिए।
ग्रासैषणा का वर्णन करते हुए बताया है कि गुरु के समीप बैठकर प्रकाशयुक्त स्थान में भोजन करे। यदि भिक्षा सदोष आगई हो तो उसके परिस्थापन की विधि भी बताई गई है।
उपधिद्वार में जिनकल्पिक श्रमणों के (१) पात्र, (२) पात्रबंध, (३) पात्र-स्थापन, (४) पात्रकेसरिका, (५) पटल, (६) रजस्त्राण, (७) गोच्छक, (८-१०) तीन प्रच्छादन (वस्त्र), (११) रजोहरण, (१२) मुखवस्त्रिका-ये बारह उपकरण हैं। इन १२ उपकरणों में मात्रक और चोलपटक मिला देने से स्थविरकल्पिकों के चौदह उपकरण होते हैं।
श्रमणियों के पच्चीस उपकरणों का वर्णन है। बारह उपकरणों के अतिरिक्त तेरह उपकरण उनके विशेष होते हैं।
पात्र के लक्षण, ग्रहण करने की आवश्यकता, दण्ड, यष्टिचर्म, चिलिमिली आदि की आवश्यकता पर भी ग्रहण करने के सम्बन्ध में विचार किया है। लाठियों के भेद-प्रभेदों का उल्लेख करते हुए एक, तीन व सात पोरीवाली लाठी शुभ मानी है।
उपधि को धारण करने में यदि परिग्रहवृत्ति आ जाती है तो वह उपधि उपाधिरूप हो जाती है। जहाँ पर प्रमत्तभाव आता है वहाँ हिंसा है और जहाँ पर अप्रमत्तभाव है वहाँ पर अहिंसा है।
इसके पश्चात् अनायतन-वर्जन द्वार है। जहाँ पर ज्ञान, दर्शन और
पत्तं पत्ताबंधो पायढवणं च पायकेसरिया । पडलाइं रयत्ताणं च गुच्छओ पायनिज्जगो॥ तिन्नेव य पच्छागा रयहरणं चेव होइ मुहपत्ती। एसो दुवालसविहो उवही जिणकप्पियाणं ॥ एए चेव दुवालस मत्तग अइरेगचोलपट्टो य । एसो चउद्दसविहो उवही पुण थेरकप्पम्मि ।
-~-ओधनियुक्ति, गा० ६६८-६७० २ वही, गा० ७३१-७३८ ३ वही, गा० ७५०-७५३