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४२० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा वह उससे निवृत्त होकर पवित्र स्थान में बैठा हो तब रोगी श्रमण की स्थिति उसे सुनायें और वह जो उपचारविधि कहे उसे ध्यानपूर्वक श्रवण करें। यदि वैद्य रुग्ण श्रमण को देखने के लिए आये तो रोगी श्रमण के सन्निकट का वातावरण पूर्ण स्वच्छ रखें। ग्लान श्रमण की परिचर्या करें।२
श्रमण भिक्षा के लिए जाये उस समय उपस्थित होने वाली बाधाएँ, भिक्षा के दोष, श्रमण की परीक्षा, स्थान विधि, गण की आज्ञा लेकर जाना, पर प्रस्तुत कार्य के लिए बाल, वृद्ध, रुग्ण श्रमण को नहीं प्रेषित करना चाहिए। जिस वसति को पसन्द किया जाये वहाँ पर उच्चार-प्रस्रवणभूमि, पानी का स्थल, विश्रामस्थल, भिक्षास्थल प्रति मार्गों को भली-भांति देखना चाहिए। किस दिशा विशेष में मकान आदि रहने से शुभ होता है और किस में रहने से अशुभ होता है आदि विषयों पर भी विचार किया गया है। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाना हो तो शय्यातर की अनुमति लेनी चाहिए। वह शय्यातर को कहे कि अब इक्षु बाड़ को लांघ चुके हैं। तुम्बी के फल आ चुके हैं। बैलों में भी बल का संचार हो चुका है। कीचड़ भी सूख गया है, जल कम हो गया है अत: श्रमणों के विहार का समय आ चुका है।
शय्यातर-आप इतनी शीघ्रता क्यों कर रहे हैं ?
आचार्य-क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि श्रमण, पक्षी, भ्रमर, गाय और शरत्कालीन मेघ एक स्थान पर नहीं रहते। अतः हम लोग कल यहाँ से प्रस्थान करेंगे। प्रस्थान के पूर्व वे शय्यातर के परिवार को धर्मोपदेश प्रदान करते हैं।
विहार करते समय शुभ शकुन देखना चाहिए, अशुभ शकुन में गमन
१ ओधनियुक्ति, गा०७० २ वहीं, गा० ७१-८३ ३ उच्छू वोलिंति वई, तुंबीओ जायपुत्तभंडा य ।
वसमा जायत्थामा गामा पब्वायचिक्खल्ला ॥ अप्पोदगा य मग्मा वसुहा वि पक्कमहिमा जाया ।
अण्णक्कंता पंथा साहूणं विहरिउ कालो ॥१७०-१॥ ४ समणाणं सउणाणं ममरकुलाणं च गोउलाणं च ।
अनियाओ वसहीओ सारइयाणं च मेहाणं ॥१७२।। ५ वही, १७०-५