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________________ ओघनियुक्ति ओघ का अर्थ सामान्य या साधारण है। इसमें बिना विस्तार किये केवल सामान्य कथन किया गया है अत: इसका नाम ओघनियुक्ति है। इसमें सामान्य सामाचारी का वर्णन है। पिण्डनियुक्ति की भांति इसमें भी श्रमणों के आचार-विचार का प्रतिपादन होने से इसे कहीं पर नियुक्ति के स्थान पर मूलसूत्र माना है और कहीं पर इसे छेदसूत्रों के अन्तर्गत गिना है। इस नियुक्ति के रचयिता भद्रबाहु माने जाते हैं। विज्ञों का ऐसा मत है कि यह आवश्यकनियुक्ति का ही एक अंश है। इसमें उदाहरण के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया गया है। इसमें ११ गाथाएँ हैं। पिण्डनियुक्ति की भांति इसमें भी भाष्य और नियुक्ति की गाथाएँ परस्पर मिल गई हैं। द्रोणाचार्य ने इस पर चूणि की भांति प्राकृत प्रधान टीका लिखी है। आचार्य मलयगिरि ने इस पर वृत्ति लिखी है । बृहद्भाष्य व अवचूरि भी प्राप्त होती है। प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रतिलेखनाद्वार, पिण्डद्वार, उपधिनिरूपण, अनायतनवर्जन, प्रतिसेवनाद्वार, आलोचनाद्वार और विशुद्धिद्वार का निरूपण हुआ है। प्रतिलेखना स्थान आदि का सम्यक् प्रकार निरीक्षण करना प्रतिलेखना कहलाती है। प्रतिलेखना के (१) अशिव, (२) दुभिक्ष, (३) राजभय, (४) क्षोभ, (५) अनशन, (६) मार्गभ्रष्ट, (७) मन्द, (८) अतिशययुक्त, (९) देवता, (१०) आचार्य ये दस द्वार हैं। श्रमण अशिव के समय देशान्तर में गमन कर जाते थे, वे अशिवोपद्रव से त्रसित कुलों से भिक्षा ग्रहण नहीं करते थे। दुर्भिक्ष की विकट संकट की स्थिति उपस्थित होने पर गणभेद करके रुग्ण श्रमण को अपने साथ रखना चाहिए, ऐसा विधान किया गया है। किन्हीं कारणों से यदि राजा श्रमण पर कुपित होजाये और वह श्रमण का अशन-पान या उपकरण अपहरण करने के लिए प्रस्तुत हो तो ऐसी परिस्थिति में श्रमण गच्छ के साथ रहे। यदि राजा उसका जीवन और चारित्र ही नष्ट करना चाहता है तो वह गण का परित्याग कर एकाकी विचरण करे। किसी नगर
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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