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अंगबाह्य आगम साहित्य
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(१) गण में फूट डालना ।
(२) फूट डालने की योजना बनाना, उसके लिए सदा प्रयास करना ।
(३) श्रमण आदि को मारने की भावना रखना ।
(४) मारने की योजना बनाना ।
(५) पुनः पुनः असंयम के स्थान रूप सावद्य अनुष्ठान की अन्वेषणा करते रहना अर्थात् अंगुष्ठ, कुड्य प्रभृति प्रश्नों का प्रयोग करना । इन प्रश्नों से दीवार या अंगूठे में देवता को बुलाया जाता है।
इनके अतिरिक्त श्रमणी या महारानी का शील भंग करने पर भी यह प्रायश्चित्त दिया जाता था। तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर आदि की अभिनिवेशवश बार-बार आशातना करने वाले को भी यह प्रायचित्त दिया जाता था। इसी तरह कषाय दुष्ट, विषयदुष्ट, स्त्यानद्धिनिद्राप्रमत्त एवं अन्योन्यकारी पाशंचिक प्रायश्चित्त के अधिकारी हैं । "
उपर्युक्त दस प्रायश्चित्तों में से अन्तिम दो प्रायश्चित्त-अनवस्थाप्य और पारंचिक -- ये चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु स्वामी तक रहे। उसके पश्चात् लुप्त हो गये ।
१ जीतकल्प ६४-६६
आचार्य अभयदेव के अभिमतानुसार दसवाँ प्रायश्चित्त विशेष पराक्रम वाले आचार्य को दिया जाता था, उपाध्याय को हवें प्रायश्चित्त तक और सामान्य श्रमण के लिए आठवें प्रायश्चित्त तक का विधान है। वर्तमान में अधिक से अधिक आठवां प्रायश्चित्त दिया जा सकता है।
विज्ञों का ऐसा अभिमत है कि यतिजीतकल्प और श्राद्धजीतकल्प भी जीतकल्प के अन्तर्गत ही गिने जा सकते हैं। यतिजीतकल्प में श्रमणाचार का निरूपण है, इसके रचयिता सोमप्रभ सूरि हैं और साघुरत्न ने इस पर वृत्ति लिखी है। श्राद्धजीतकल्प में श्रावकाचार का विश्लेषण है। इसके रचयिता धर्मघोष हैं और सोमतिलक ने इस पर वृत्ति भी लिखी है ।
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