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________________ ४१६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा हैं। यह प्रायश्चित्त मानव के अहंकार पर सीधी चोट करता है। यह प्रायश्चित्त देने पर दीक्षा में छोटे साधु भी बड़े बन जाते हैं। जो तप के गर्व से उन्मत्त हैं या जो तप के लिए सर्वथा असमर्थ हैं अथवा जिनकी तप पर किञ्चित् भी श्रद्धा नहीं है, या जिनका तप से दमन करना कठिन है उनके लिए छेद का विधान किया गया है।" मूलाई प्रायश्चित्त का आठवां प्रकार मूलाई है। मूलाई का अर्थ नई दीक्षा है । छद्मस्थ श्रमण या श्रमणी कभी-कभी इतने महान् अपराध का सेवन कर लेता है जिसकी शुद्धि आलोचना व तप से संभव नहीं है। हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि से महाव्रतों के भंग से वह चारित्र से सर्वथा भ्रष्ट हो जाता है । उस दोष की विशुद्धि के लिए चारित्र पर्याय का सर्वथा छेद कर नई दीक्षा देनी पड़ती है। महाव्रतों का फिर से आरोपण करना पड़ता है । एतदर्थ इसे मूलाई प्रायश्चित्त कहा है । अनवस्थाप्यार्ह प्रायश्चित्त का नौवीं प्रकार अनवस्थाप्यार्ह है। जिस महानतम दोष की शुद्धि के लिए अनवापित होना पड़ता है अर्थात् श्रमण संघ से पृथक् होकर गृहस्थ का वेश धारण किया जाय और साथ ही विशेष तप की आराधना की जाय। इस प्रकार दोनों आचरणों के पश्चात् पुनः नई दीक्षा ग्रहण करनी होती है - इस विधि से जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह अनवस्थाप्याह प्रायश्चित्त कहा जाता है। तीव्र क्रोध आदि से प्ररुष्ट चित्त वाले निरपेक्ष घोरपरिणामी श्रमण के लिए प्रस्तुत प्रायश्चित्त का विधान है । 3 पाराञ्चिकार्ह दसवां प्रायश्चित्त पाराञ्चिकार्ह प्रायश्चित्त है। श्रमण जीवन में सबसे गुरुतर महादोष के लिए प्रस्तुत प्रायश्चित्त का विधान है। इस प्रायश्चित्त में वेष और क्षेत्र का परित्याग कर उत्कृष्ट तप की साधना करनी होती है । स्थानांगसूत्र में पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के पाँच कारण बताये हैं। वे ये हैं जीत० गा० ८०-८२ २ वही, गा० ८३-८५ ३ वही, गा० ८७-१३ ४ स्थानांग ५।१ १
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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