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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य ४१५ कायोत्सर्ग का कालमान श्वासोच्छ्वास से किया जाता था। कायोत्सर्ग का उच्छ्वास मान इस प्रकार हैदेवसिक १०० रात्रिकपाक्षिक ३०० चातुर्मासिक- ५०० साम्वत्सरिक- १००८ अन्य अनेक प्रयोजनों में आठ, सोलह, पच्चीस, सत्ताईस, एक सौ आठ उच्छ्रवासमान कायोत्सर्ग का विधान प्राप्त होता है। उच्छ्वास का कालमान एक चरण के समान माना गया है। तपार्ह प्रायश्चित्त का छठा भेद तपाई है। तप साधना का प्राण है। जिस साधना-आराधना से पापकर्म तप्त किये जाते हैं वह तप है । तप का विश्लेषण करते हुए ज्ञानातिचार आदि पर प्रकाश डाला है और विभिन्न प्रकार के अपराधों की शुद्धि के लिए एकाशन, उपवास, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, आयंबिल आदि तप का विधान किया गया है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से तप पर चिन्तन करते हुए गीतार्थ, अगीतार्थ, सहनशील, असहनशील, शठ, अशठ, परिणामी, अपरिणामी, अतिपरिणामी, धति-देहसम्पन्न, धृति-देहहीन, आत्मतर, परतर, उभयतर, नोभयतर, अन्यतर, कल्पस्थित, अकल्पस्थित आदि व्यक्तियों की दृष्टि से तप पर प्रकाश डाला है। छेदाह प्रायश्चित्त का सातवाँ भेद छेदाह है। छेद का अर्थ काटना, या कम करना है। जिस दोष की विशुद्धि के लिए दीक्षा पर्याय का छेदन किया जाता है वह छेदाह प्रायश्चित्त कहलाता है। इसमें दोष की गुरुता और लघुता की दृष्टि से मासिक, चातुर्मासिक, षण्मासिक आदि अनेक भेद किये १ (क) जीतकल्प, गा० १६.२२-२३ (ख) आवश्यकनियुक्ति १५४४ २ आवश्यकनियुक्ति १५४८-१५५२ ३ पायसमाऊसासा, कालपमाणेण हेति नायब्वा । --व्यवहारभाष्य १२२
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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