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४१४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा क्रमण में पुराने दोषों की निवृत्ति होती है और संकल्प से भविष्य में पाप न करने की शक्ति पैदा होती है। समिति-गुप्ति में प्रमाद-आशातना, विनयभंग, गुरु की आज्ञा का अपालन, मृषादि का प्रयोग, विधिरहित कास-जम्मा क्षुतबात का निवारण, असंक्लिष्ट कर्म, कन्दर्प, हास्य, विकथा, कषाय, विषयानुषंग, स्खलना प्रभृति प्रतिक्रमण के प्रायश्चित्त योग्य स्थान है। तदुभयाह
प्रायश्चित्त का तृतीय भेद तदुभयाह है। इसमें आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के द्वारा शुद्धि की जाती है। संभ्रम, भय, आपत्, सहसा, अनाभोग, अनात्मवशता, दुश्चिन्तन, दुर्भाषण, दुश्चेष्टा, प्रभृति अनेक अपराध उभय प्रायश्चित्त के स्थान हैं।' विवेकाह
प्रायश्चित्त का चतुर्थ भेद विवेकाह है। विवेक का यहाँ पर अर्थ त्याग अथवा छोड़ना है । किसी वस्तु का त्याग कर देने से ही जिस दोष की विशुद्धि होती है वह विवेकाह प्रायश्चित्त है। जैसे कालातीत, क्षेत्रातीत, आधाकर्म दोष से युक्त आहार, उपधि, शय्या आदि के ग्रहण करने से लगने वाले दोष के निवारण हेतु विवेकाह प्रायश्चित्त का विधान है। व्युत्साह
प्रायश्चित्त का पांचवाँ भेद व्युत्सर्हि है। व्युत्सर्ग में दो शब्द-वि+ उत्सर्ग हैं। वि का अर्थ विशिष्ट है और उत्सर्ग का अर्थ त्याग है। त्याग करने की विशिष्ट विधि व्युत्सर्ग है। व्यूत्सर्ग में अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग होता है । धर्म के लिए, आत्म-साधना के लिए अपने आपको उत्सर्ग करने की विधि व्युत्सर्ग है। व्युत्सर्ग में शरीर अन्य है और आत्मा अन्य है-यह बुद्धि होती है।
व्युत्सर्ग या कायोत्सर्ग ये दोनों पर्यायवाची हैं । व्युत्सर्ग से दोषों की विशुद्धि होती है। धर्माराधन करते समय प्रमाद के कारण चारित्र में दोष लग जाता है, उसमें मलिनता आ जाती है-उस मलिनता को दूर कर पुनः चारित्र को निर्मल बनाना कायोत्सर्ग है। गमन, आगमन, विहार, श्रुत, सावद्यस्वप्न, नौका, नदी आदि से सम्बन्धित दोष कायोत्सर्ग के योग्य स्थान है।
१ वही, गा०६-१२ २ वही, मा०१३-१५