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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य ४१३ आलोचना वही करता है जो जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, क्षान्त, दान्त, अमायी, अपश्चातापी (बाद में पश्चाताप न करने वाला) हो । जैसे कुशल वैद्य अपनी बीमारी दूसरे वैद्य से कहता है, उससे चिकित्सा करवाता है, उसके अनुसार कार्य करता है वैसे ही निपुण साधक को भी पाप की विशुद्धि दूसरों की साक्षी से करनी चाहिए। आलोचना बहुश्रुत गंभीर श्रमण के समक्ष करनी चाहिए । आलोचना जिनके समक्ष की जाय वह आचारवान हो, आधारवान - अवधारणायुक्त हो, व्यवहारवान -- पांचों व्यवहारों का ज्ञाता हो । अप्रवीडक - मधुरवचनों से अपराधी की लज्जा दूर कर उससे सही आलोचना कराये । प्रकुर्वक -- अपराधी अपने दोषों का प्रायश्चित्त माँगता हो उस समय उसे अविलम्ब प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करे। अपरिस्रावी - आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के समक्ष प्रकट करने वाला न हो। निर्यापक यदि किसी ने महान दोष का सेवन किया हो किन्तु उसका शरीर अशक्त व रुग्ण है तो थोड़ा-थोड़ा प्रायश्चित्त देकर उसकी शुद्धि कराये । अपायदर्शी - दोष का सेवन करके भी यदि वह आलोचना करने में संकोच का अनुभव करता है तो उसका दुष्परिणाम समझाकर आलोचना कराये । आलोचना का जैन साहित्य में गहराई से विश्लेषण किया गया है। छद्मस्थ को आहारादिग्रहण, बहिर्निर्गम, मलोत्सर्ग आदि क्रियाओं में अनेक दोष लगते हैं उनकी आलोचना करना । १ प्रतिक्रमण आलोचना के पश्चात् दूसरा प्रायश्चित्त, प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण जैन साधना का महत्त्वपूर्ण अंग है। जीवन में जो पाप स्वयं करते हैं, दूसरों से करवाते हैं और दूसरों के द्वारा किये गये पापों का अनुमोदन करते हैं उन सभी पापों की निवृत्ति के लिए अन्तःकरण से जो पश्चाताप किया जाता है वह प्रतिक्रमण है शुभ योग से आत्मा जो अशुभ योग में गई है उसे पुनः शुभ योग में लौटा लाना प्रतिक्रमण है। एकान्त शान्त क्षणों में बैठकर प्रातः व संध्या के समय साधक अन्तर्निरीक्षण करता है और जिन दोषों से आत्मा दूषित होती है उन्हें न करने का वह दृढ़ता से संकल्प करता है। इस प्रकार प्रति जीतकल्प गा० ५-८ १
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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