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________________ ४१२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा और गुरुवर्य जो शुद्धि बतायें उसके अनुसार तप आदि का आचरण करना प्रायश्चित्त है। राजनीति में अपराधी को दण्ड दिया जाता है। पहले तो वह अपराध को स्वीकार ही नहीं करता और परिस्थितिवश स्वीकार भी कर ले तो उसके मन में उसके प्रति पश्चाताप और ग्लानि नहीं होती। यदि उसे दण्ड प्राप्त भी हो जाता है तो वह उसका प्रसन्नतापूर्वक पालन नहीं करता। प्रायश्चित्त में हृदय परिवर्तन होता है । अपराध की गुरुता व लघुता को लक्ष्य में रखकर प्रायश्चित्त के भेद किये गये हैं। वे दस हैं-आलोचनाह, प्रतिक्रमणाह, तदुभयाह, विवेकाह, व्युत्सर्हि, तपार्ह, छेदाह, मूलाह, अनवस्थाप्याह, पाराञ्चिकाह। आलोचना दस प्रायश्चित्तों में पहला प्रायश्चित्त आलोचना है। यहाँ पर दूसरों की नुक्ताचीनी करना, टीका-टिप्पणी करना इष्ट नहीं है। यहाँ आलोचना का अर्थ है-संयम में जो दोष लग गया हो, उसको गुरुजनों के समक्ष निष्कपट मन से प्रकट कर देना कि गुरुदेव मुझसे यह दोष हो गया है। इस प्रकार प्रकट रूप से दोष को स्वीकार करना आलोचना है।' आलोचना आत्म-निन्दा है, स्वयं के दोषों को प्रकट करना है। परनिन्दा सरल है परन्तु स्वयं के दोषों की निन्दा करना कठिन है। जैसे बालक उचित या अनुचित जो भी कार्य कर लेता है वह सरल हृदय से माता-पिता से कह देता है, उसमें किसी भी प्रकार का दुराव-छिपाव नहीं होता वैसे ही शिष्य को गुरु के समक्ष अपने दोष प्रकट कर देने चाहिए। जब तक कृत पापों की आलोचना नहीं की जाती तब तक हृदय शल्य-मुक्त नहीं होता। बिना आलोचना किये यदि मृत्यु हो जाती है तो साधक विराधक हो जाता है। दोष लग जाना उतना बुरा नहीं है जितना बुरा है दोष को दोष न समझना और उसे छपाने का प्रयास करना । अलोचना से जीवन में उल्लास आता है, मन में हलकापन का अनुभव होता है और हृदय में निर्मलता आती है। १ आ-अभिविधिना सकलदोषाणां, लोचना-गुरुपुरतः प्रकाशना आलोचना। --भगवती २५७ टीका
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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