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जीतकल्प
श्रमण जीवन का आधार व्यवहार है। मुमुक्षु साधकों की प्रवृत्ति और निवृत्ति को व्यवहार कहा गया है। अशुभ से निवृत्त होकर शुभ में प्रवृत्ति करना व्यवहार है और वही चारित्र भी है।
साधक की प्रत्येक प्रवृत्ति और निवत्ति में ज्ञान की प्रधानता होती है। ज्ञानयुक्त प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही उपादेय हैं और ज्ञानरहित दोनों ही हेय हैं। ज्ञान की मूलभित्ति पर ही चारित्र का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। व्यवहार के पांच प्रकार हैं। उसमें पांचवें व्यवहार का नाम जीत व्यवहार है। 'जो व्यवहार परम्परा से प्राप्त हो एवं श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत हो वह जीत व्यवहार कहलाता है। प्रस्तुत आगम में श्रमण-श्रमणियों के भिन्न-भिन्न अपराधस्थान विषयक प्रायश्चित्त का जीत व्यवहार के आधार पर निरूपण किया गया है।
जीतकल्प के रचयिता सुप्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण हैं। इसमें १०३ गाथाएँ हैं। कल्पकार ने प्रथम प्रवचन को नमस्कार किया है। आत्मा की विशुद्धि के लिए जीत व्यवहारगत प्रायश्चित्त दान का संक्षिप्त निरूपण है। . संवर और निर्जरा से मोक्ष होता है। तप संवर और निर्जरा का मुख्य हेतु है। तप में प्रायश्चित्त प्रधान है। एतदर्थ प्रायश्चित्त का मोक्ष-मार्ग की दृष्टि से अत्यधिक महत्व है।
प्रायश्चित्त दो शब्दों के योग से बना है। प्रायः का अर्थ है पाप और चित्त का अर्थ है उस पाप का विशोधन करना । अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया का नाम प्रायश्चित्त है।
प्रायश्चित्त और दण्ड में यह अन्तर है कि प्रमादवश अनुचित कार्य करने पर मन में पश्चाताप होना और उसकी शुद्धि के लिए गुरुवर्य के समक्ष स्वयं के दोष को प्रकट करना, उसकी शुद्धि के लिए प्रार्थना करना
१। जीतकल्पमाध्य, गा०६७५