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अंगबाह्य आगम साहित्य
और आलोचना के चार भेदों का निरूपण है । इसमें आचार्य भद्र के एक गच्छ में पांचसौ साधु व बारहसौ साध्वियों होने का उल्लेख है।
चूलाएँ
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इसमें दो चूलाएँ हैं । द्वितीय चूला में विधिपूर्वक धर्माचरण की प्रशंसा की गई है। चैत्यवन्दन सम्बन्धी प्रायश्चित्त का निरूपण है । स्वाध्याय में बाधा उपस्थित करने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान है । प्रतिक्रमण तथा 'पच्चुप्पेहा' के प्रायश्चित्त, परिस्थापनिका और मुहणंतग के प्रायश्चित्त, ज्ञानग्रहण सम्बन्धी प्रायश्चित्त, भिक्षा सम्बन्धी प्रायश्चित का वर्णन है। इसमें प्रायश्चित्तसूत्र विच्छिन्न हो गया है— इसकी चर्चा भी की गई है। विद्या मन्त्रों की चर्चा है जो जलादि से रक्षा करता है। प्रायश्चित्त की विशेष रूप से चर्चा की गई है। आलोचनादि प्रायश्चित्त का भी निरूपण है । हिंसा के सम्बन्ध में सुसढ़ की भी कथाएं हैं। इसमें सती प्रथा और राजा के पुत्रहीन पर कन्या को राजगद्दी पर बैठाने का उल्लेख है। कीमिया बनाने का उल्लेख भी प्राप्त होता है ।
गढ़ जालोर में पं० मुनि श्री कल्याणविजयजी के शास्त्र संग्रह में मैंने ताडपत्र पर लिखी हुई प्राचीन पुस्तक भण्डारों की सूची देखी थी। उसमें महानिशीथ की कनिष्ठ, मध्यम और उत्कृष्ट भेद से तीन वाचनाओं का उल्लेख था । कनिष्ठ वाचना के ३४००, मध्यम वाचना के ४२०० और उत्कृष्ट वाचना के ४५०० श्लोकों की संख्या लिखी थी। वर्तमान में महानिशीथ की जितनी भी प्रतियाँ प्राप्त हैं। उनका श्लोक परिमाण ४५०० या ४५४४ श्लोक प्राप्त होता है।
इतिहासवेत्ता पं० मुनि श्रीकल्याणविजयजी गणी का मन्तव्य है कि महानिशीथ का उल्लेख नन्दी व पाक्षिक सूत्र में है पर वर्तमान में उपलब्ध महानिशीथसूत्र एक भेदी कृति है । प्रस्तुत कृति के उद्धारक प्रसिद्ध आचार्य हरिभद्रसूरि माने जाते हैं और इस उद्धृत सूत्र का सिद्धसेन दिवाकर, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन क्षमाश्रमण के शिष्य रविगुप्त, नेमिचन्द्र, जिनदासगणी क्षपक, सत्यश्री प्रमुख युगप्रधान श्रुतघरों से समर्थन कराया है जो सन्देहास्पद है क्योंकि जिन श्रुतधरों द्वारा इसे प्रमाणित करने का उल्लेख किया गया है वे श्रुतधर आचार्य हरिभद्र के समकालीन नहीं थे। वृद्धवादी और सिद्धसेन दिवाकर हरिभद्रसूरि से ३०० वर्ष पूर्व हुए हैं