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४०६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा निरूपण है। शिथिल आचार का समर्थन करना ही दोष है। उससे व्रत भंग होता है। कुशील के संसर्ग से अनन्त संसार की अभिवृद्धि होती है और उसके संसर्ग का जो परित्याग करता है उसे सिद्धि मिलती है।
आचार्य हरिभद्र का यह अभिमत है कि चतुर्थ अध्ययन के कितने ही आलापक श्रद्धा के योग्य नहीं है तथापि वृद्धवाद के अनुसार शंका करना भी योग्य नहीं है। उन्होंने यह भी लिखा है कि प्रस्तुत अध्ययनगत मूल बात का समर्थन स्थानांग आदि से भी नहीं होता है।
पंचम अध्ययन का नाम नवनीत सार है। इसमें गच्छ के स्वरूप का विवेचन किया गया है। विज्ञों का ऐसा मानना है कि गच्छाचार नामक प्रकीर्णक का मूल आधार प्रस्तुत अध्ययन है ।
गच्छ में किस प्रकार रहना चाहिए इस पर चिन्तन करते हुए बताया है कि गच्छ की मर्यादा दुप्पसह नामक आचार्य तक रहेगी। पंचम आरे के अन्त में होने वाले श्रमण-श्रमणी, श्रावक और श्राविका इन चारों द्वारा मर्यादा का पालन किया जायेगा। शय्यंभव को आसन्न-कालीन बताया है। कल्की के समय में "सिरिप्पभ" नामक अनगार होंगे। इसमें दस आचार्यों का भी वर्णन है । द्रव्यस्तव करने वाले को असंयत बताया है। जिनालयों के संरक्षण और उनके जीर्णोद्धार की भी चर्चा की गई है।
इसमें सावधाचार्य का निरूपण है। किसी समय किसी श्रमणी ने नमस्कार करते समय उनका स्पर्श किया था जिसके कारण वे महानिशीथ की तिरानवें गाथा का अर्थ करते समय हिचकिचाते थे। अयोग्य के समक्ष उत्सर्ग और अपवाद का निरूपण करने से सावधाचार्य ने अनन्त संसार बढ़ा दिया था। जिससे वे अनेक भवों तक संसार में परिभ्रमण करेंगे।
छठे अध्ययन का नाम 'गीयत्थ विहार' है। दशपूर्वी नन्दिषेण के द्वारा दोष सेबन होने प्रायश्चित्त करने का उल्लेख है । प्रायश्चित्त की विधि बताई है। मेघमाला का दृष्टान्त दिया है। आरम्भ-समारम्भ के त्याग का उपदेश दिया गया है। आरम्भत्याग की अशक्यता के सम्बन्ध में ईषर का दृष्टान्त दिया गया है। रज्जा आर्यिका का दृष्टान्त है। अगीतार्थ के विषय में लक्षणार्या का दृष्टान्त दिया गया है। इस अध्ययन में प्रायश्चित्त के दश
१ वही, पृ० १०२