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अंगबाह्य आगम साहित्य विज्ञ मुझ पर दोषारोपण न करें क्योंकि मेरे समक्ष जो आदर्श प्रति है वह खण्ड है ।
द्वितीय अध्ययन में कर्मविपाक का विवेचन है। इसमें शारीरिक आदि दुःखों का वर्णन है । आस्रव द्वार के निरोध से दुःखों का अन्त बताया गया है । इस अध्ययन के सातवें उद्देशक में स्त्री वर्जन का उपदेश दिया गया है । गौतम और महावीर के संवाद के माध्यम से यह बताया गया है कि जो अधम साधक होते हैं वे ही स्त्रियों के काम- राग में आसक्त होते हैं । परिग्रह से जीवन दूषित होता है ।
तृतीय अध्ययन के प्रारम्भ में लिखा है कि प्रथम और द्वितीय अध्ययन का समावेश सामान्य वाचना में है । इसके पश्चात् के चार अध्ययन का अधिकारी योग्य व्यक्ति ही है, अयोग्य नहीं। चार अध्ययनों के लिए निर्दिष्ट तपस्या का वर्णन है। ये चार अध्ययन सम्पूर्ण श्रुत का सार हैं। सभी श्रेय कार्यों में विघ्न होता है अतः मंगल करणीय है । मंत्र, तंत्र आदि अनेक विद्याओं के नाम बताये हैं। नमस्कार मंत्र, उपधान, अनुकम्पा आदि का वर्णन है । यहाँ पर यह भी बताया है कि वज्रस्वामी ने व्युच्छिन्न पंचमंगल की नियुक्ति आदि का उद्धार करके इसे मूलसूत्र में स्थान दिया । आचार्य हरिभद्र ने खण्डित प्रति के आधार से इसका उद्धार किया है । " बाद में सिद्धसेन दिवाकर, वृद्धवादी, जक्खसेण (यक्षसेन), देवगुप्त, यशोवर्धन क्षमाश्रमण के शिष्य रविगुप्त, नेमिचन्द्र, जिनदासगणी क्षमाश्रमण, सत्यश्री प्रमुख आदि युगप्रधान आचार्यों ने महानिशीथ का अत्यधिक सम्मान किया है।
पंचनमस्कार के पश्चात् इरियावही का निर्देश है। द्वादश अंगों की तपस्या विधि और उससे होने वाले लाभ का उल्लेख किया है।
चतुर्थ अध्ययन में कुसंग के दृष्टान्त में सुमति की कथा दी गई है। शिथिल आचार की परिगणना की गई है। प्रश्नव्याकरण वृद्ध विवरण का
१ एत्थ य जत्थ जस्थ पयंपयेाऽणुलग्गं सुत्तलावगं ण संपज्ञ्जइ तत्थ तत्थ सुबहरेहि कुलिहिदोसो ण दायचो ति । किंतु जो सो एयस्सं अतिचिंतामणिकप्पभूयस्स महानिसहसुयवखंधस्स पुव्वायरिसो आसि तहि चेव खंडाखंडीए उद्दे हिया एहि ऊहि बहवे पण्णगा परिसडिया तहावि अच्चतसमुहत्याइसयं ति इमं महानिसीहसुक्खंधं कसिणपवयणस्स परमसारभूयं परं तत्तं महत्यं ति कलिऊण पवयणवच्छल्लसणेण ।