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________________ महानिशीथ भाषाशास्त्र की दृष्टि से एवं विषय की दृष्टि से भी प्रस्तुत आगम की रचना अर्वाचीन आगमों में की जाती है, क्योंकि इसमें अनेक स्थलों पर आगमेतर ग्रन्थों के उल्लेख व उद्धरण प्राप्त होते हैं। इसमें छह अध्ययन हैं और दो चूलाएँ हैं । ग्रन्थ का श्लोक प्रमाण ४५५४ है । ' प्रथम अध्ययन का नाम शल्योद्धरण (सल्लुघरण ) है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में तीर्थ और अर्हन्तों को नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात् 'सुयं मे' वाक्य से विषय का प्रारम्भ होता है किन्तु शीघ्र ही ऐसा वर्णन है कि छद्मस्थ श्रमण और श्रमणियाँ महानिशीथ के अनुसार आचरण करने वाले हों तो एकाग्रचित्त होकर आत्मा में रमण करते हैं । उसके बाद वैराग्य की अभिवृद्धि करने वाली गाथाएँ हैं। जिनमें साधक को शल्यरहित होना चाहिए इस बात पर बल दिया है। जब तक पापरूपी शल्य जीवन में से नहीं निकलता तब तक साधक के जीवन में आनन्द की बंशी नहीं बज सकती। इसमें 'हयं नाणं' आदि आवश्यक नियुक्ति की गाथाएं उट्टति की गई हैं। शास्त्रोद्धार की विधि पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि श्रुत देवता विद्या का लेखन कर उससे मंत्रित होकर सोने पर स्वप्न की सफलता प्राप्त होती है। निःशल्य होकर सभी से क्षमा-याचना करनी चाहिए। इससे केवलज्ञान की उपलब्धि होती है। दूषित आलोचना के दृष्टान्त दिये गये हैं । मोक्ष प्राप्त करने वाली अनेक निःशल्य श्रमणियों के नाम दिये गये हैं। अपने अपराध को छुपाने वाले की दुर्गति होती है यह भी बताया गया है। अध्ययन के अन्त में लिखा है कि मैंने अच्छा नहीं लिखा है, ऐसा १ प्रस्तुत ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। आगम प्रभाकर स्वर्गीय मुनिप्रवर श्री पुण्यविजयजी महाराज ने इसकी प्रेस कापी तैयार की थी उसी के आधार से यह विवरण प्रस्तुत है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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