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________________ ४०२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (e) अव्यत - ऐसे अगीतार्थ श्रमण पास जाकर आलोचना करना जिसे यह ज्ञात न हो कि किस अतिचार का कौन-सा प्रायश्चित्त आता है। (१०) तत्सेवी - जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसी दोष का सेवन करने वाले आचार्य के पास जाकर इस भावना से आलोचना करे कि उन्होंने भी इस दोष का सेवन किया है अतः मुझे वे इसका प्रायश्चित्त न्यून देंगे। आलोचक को इन दोषों से बच कर सरल व निष्कपट भाव से आलोचना करनी चाहिए। बारह प्रकार के तप का आचरण करना चाहिए। संलेखना के आभ्यन्तर और बाह्य ये दो प्रकार बताये हैं। कषायों को कृश करना यह आभ्यन्तर संलेखना है और काया को कृश करना यह बाह्य संलेखना है। 1 संलेखना की विधि पर भी प्रकाश डाला है। साधक को उपाधि का त्याग कर आत्मा का अवलम्बन लेना चाहिए । पण्डितमरण आदि का विवेचन किया गया है। धर्म का उपदेश देने के लिए अनेक दृष्टान्त भी दिये हैं । परीषह सहन करते हुए पादोपगमन संथारा करके सिद्धगति प्राप्त करने वालों के दृष्टान्त भी दिये हैं । अन्त में अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं पर भी प्रकाश डाला है । " (११) चन्द्रवेध्यक ( चन्दाविज्शय) चन्द्रवेsयक प्रकीर्णक का अर्थ है राधावेद । जैसे सुसज्जित होने पर भी अन्तिम समय में किञ्चित् मात्र भी प्रमाद करने वाला वेधक राधावेद वेध नहीं कर सकता उसी प्रकार जीवन की अन्तिम घड़ियों में किञ्चित्मात्र भी प्रमाद का आचरण करने वाला साधक सिद्धि का वरण नहीं कर पाता । अतः आत्मार्थी साधक को सदा-सर्वदा अप्रमत्त होकर विचरण करना चाहिए। * प्रस्तुत प्रकीर्णक में विनय, आचार्यगुण, शिष्यगुण, विनयनिग्रहगुण, १ संलेहणा य दुविहा अभितरिया य बाहिरा चैव । aforaft sare बाहिरिया होइ य सरीरे ॥ २ वही, गा० ४२३-५२२ ३ वही, गा० ५७२-६३८ ४ चन्द्रवेध्यक, गा० १२८-१३० -मरणसमाथि, गा० १७६
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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