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अंगबाह्य आगम साहित्य ४०१ (6) निसर्ग, (९) वैराग्य, (१०) मोक्ष, (११) ध्यान विशेष, (१२) लेश्या, (१३) सम्यक्त्व, (१४) पादोपगमन-ये चौदह द्वार बताये हैं।
निःशल्य होकर आलोचना करनी चाहिए। आलोचना के दस दोष हैं
(१) आकंपयित्ता-आलोचना लेने वाला यह विचार करे कि जिनके पास आलोचना कर रहा हूँ, उनकी मैं पहले खूब सेवा करलं जिससे वे प्रसन्न होकर मुझे बहुत कम प्रायश्चित्त देंगे।
(२) अणुमाणइत्ता-पहले लघु दोषों की आलोचना करके यह अनुमान करने का प्रयास करे कि आचार्य किस प्रकार का दण्ड देते हैं । या प्रायश्चित्त के भेदों को पूछकर पहले यह अनुमान करना कि मुझे कितना दण्ड मिलेगा, उसके पश्चात् आलोचना करना।
(३) विड-जिस दोष को किसी ने देख लिया हो उसी की आलोचना करना, शेष की नहीं।
(४) बायर-सिर्फ स्थूल-स्थूल दोषों की आलोचना करना। (५) सुहयं-लघु-लघु दोषों की आलोचना करना।
इसमें साधक की यह मनोवृत्ति होती है कि जो बड़े दोषों की आलोचना करते हुए संकोच नहीं करता वह लघु दोषों को क्यों छिपायेगा अथवा जो लघु-लघु दोषों की भी आलोचना करता है वह बड़े दोष किस प्रकार छिपायेगा? इस प्रकार इसमें माया की प्रधानता होती है।
(६) छन्नं-लज्जा का प्रदर्शन करते हुए एकान्त में इतना अस्पष्ट व मन्दस्वर से आलोचना करता है कि आलोचना प्रदाता भी उसे पूर्णरूप से न सुन सके।
(७) सद्दाउलयं-दूसरे व्यक्तियों को सुनाने के लिए कि मैं आलोचना कर रहा हूँ अत: जोर-जोर से बोलना।
(4) बहजन-लोगों के सामने अपनी पापभीरता का प्रदर्शन करने के लिए एक ही दोष की अनेकों के सामने आलोचना करना जिससे कि लोग प्रशंसा करें।
१ वही, गा०८१-८२ २ तुलना कीजिए
(क) भगवतीसूत्र २५१७ (ख) स्थानांगसूत्र