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________________ ४०० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा वर्णन, देवताओं की आहारेच्छा और श्वासोच्छवास, देवताओं के अवधिज्ञान का क्षेत्र, विमानों की ऊँचाई, देवताओं का सामान्य रूप से परिचय दिया । अन्त में ईषत् प्राग्भारा का वर्णन किया है और औपपातिक के सदृश सिद्धों का वर्णन कर जिनेन्द्रदेव की महिमा और गरिमा का वर्णन कर कहा कि भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की स्तुति पूर्ण हुई। . प्रस्तुत प्रकीर्णक के रचयिता वीरभद्र माने जाते हैं। इस प्रकरण में बत्तीस इन्द्रों पर प्रकाश डालने की बात कह कर भी अधिक इन्द्रों के सम्बन्ध में चर्चा की है। जबकि अन्य स्थानों पर भवनपति के बीस, वाणव्यंतर के बत्तीस, ज्योतिषी के दो और वैमानकों के दस इन्द्रों पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार कुल ६४ इन्द्र होते हैं। (१०) मरणसमाधि (मरणसमाही). __ मरणसमाधि का अपर नाम मरणविभक्ति है। यह प्रकीर्णक सभी प्रकीर्णकों में बड़ा है-(१) मरणविभक्ति, (२) मरणविशोधि, (३) मरण समाधि, (४) संलेखनाश्रुत, (५) भक्तपरिज्ञा, (६) आतुरप्रत्याख्यान, (७) महाप्रत्याख्यान, (८) आराधना-इन आठ प्राचीन श्रुतग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत प्रकीर्णक की रचना हुई है ।२ शिष्य ने आचार्य से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि भगवन् ! समाधिमरण किस प्रकार प्राप्त होता है ? ... आचार्य ने समाधिमरण के कारणभूत (१) आलोचना, (२) संलेखना, (३) क्षमापना, (४) काल, (५) उत्सर्ग, (६) उद्ग्रास (७) संथारा, १ मोमेज्जवणयराणं जोइसियाणं विमाणवासीणं। देवनिकायाणं यवो समत्तो अपरिसेसो ।। -देवेनस्तव, गा० ३०७ २ एयं मरणविभत्ति मरणविसोहि च नाम गुणरयणं । मरणसमाही तश्यं संलेहणसुर्य चउत्थं च ॥ पंचम भत्तपरिणा, छ8' आउरपच्चक्खाणं च । सत्तम महपच्चक्खाणं अट्ठम आराहणपइण्णो । इमाओ अट्ट सुयाओ भावा उ गहिामि लेस अत्थाओ। मरणविमती रइयं बिय नाम मरणसमाहिं च ।। -मरणसमाधि, गा०६६१-६६३
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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