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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य - ३६५ शरीर को संयम में रखना, ममता से मन को हटाकर समता में रमण करना, आत्मचिन्तन करना, आहार आदि समस्त उपाधियों का परित्याग कर आत्मा को निर्द्वन्द्व और निस्पृह बनाना, यही संस्तारक यानि संथारे का आदर्श है। मृत्यु से भयभीत होकर उससे बचने के लिए पापकारी प्रवृत्तियाँ करना, रोते और बिलखते रहना यह उचित नहीं है। जैनधर्म का यह पवित्र आदर्श है कि जब तक जीओ, तब तक आनन्दपूर्वक जीओ और जब मृत्यु आ जाये तो विवेकपूर्वक आनन्द के साथ मरो। तुम रोते हुए मरो यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। संयम की साधना, तप की आराधना करते हुए अधिक से अधिक जीने का प्रयास करो और जब तुम्हें यह अनुभव हो कि जीवन की लालसा में हमें अपने धर्म से च्युत होना पड़ रहा है, लक्ष्य से भ्रष्ट होना पड़ रहा है, तो धर्म व संयम-साधना में दृढ़ रहकर समाधि-मरण हेतु हँसतेमुस्कराते हुए तैयार हो जाओ। मृत्यु को किसी भी तरह से टाला तो नहीं जा सकता किन्तु संथारे की साधना से मृत्यु को सफल बनाया जा सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में १२३ गाथाएँ हैं। इसमें मृत्यु के समय अपनाने योग्य तृण आदि शय्या का महत्त्व प्रतिपादित किया है। संस्तारक पर आसीन होकर पण्डितमरण को प्राप्त करने वाला श्रमण मुक्ति को वरण करता है। प्रशस्त संथारे का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि जैसे पर्वतों में मेरु, समुद्रों में स्वयंभूरमण और तारों में चन्द्र श्रेष्ठ है उसी प्रकार सुविहितों में संथारा सर्वोत्तम है।' . अतीत काल में संथारा करने वाली महान् आत्माओं का संक्षेप में परिचय दिया है। उनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं-अर्णिकापुत्र, सुकोशलऋषि, अवन्ति, कार्तिकार्य, चाणक्य, अमृतघोष, चिलातिपुत्र, गजसुकुमाल आदि । इनके उपसर्गजय की प्रशंसा भी की गई है। ___ संथारे में साधक सभी से क्षमायाचना कर कर्मक्षय करता है और तीन भव में मोक्ष प्राप्त करता है। इस पर गुणरत्न ने अवचूरि लिखी है। १ मेरु ब्व पन्दयाणं सयंभुरमणु ब्व चेव उदहीणं । चंदो इव ताराणं तह संथारो सुविहिमाणं ॥ -संस्तारक, गाथा ३०
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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