SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 423
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा दश दशाओं का प्रकारान्तर से भी वर्णन किया है। धर्माचरण, पुण्य व अप्रमाद का उपदेश दिया है। ३६४ साहित्यिक भाषा में युगल युगलिनियों के अंग-प्रत्यंगों का परिचय दिया गया है। उनके संहनन संस्थान का भी विवेचन किया गया है। जो व्यक्ति सौ वर्ष तक जीवित रहता है वह अपने जीवन में साढ़े बाईस वह तन्दुल का उपयोग करता है, साढ़े पाँच घड़े मूंग का उपयोग करता है, चौबीस सौ आढक घृत-तेल आदि स्निग्ध पदार्थ का उपयोग करता है और छत्तीस हजार पल नमक खाता है । एक वाह जो उस युग का प्रमाण विशेष था उसमें चार अरब, साठ करोड़ और अस्सी लाख चावल के दाने होते थे । व्यावहारिक दृष्टि से काल की परिगणना करते हुए बताया है कि एक अहोरात्र के श्वासोच्छ्वास, एक मास के एक वर्ष के और सौ वर्ष के कितने श्वासोच्छ्वास होते हैं। मुहूर्त, ऋतु व शतायु का भी क्षय हो जाता है अतः धर्माचरण करना चाहिए। यह शरीर भी एक दिन नष्ट हो जाता है। यह व्याधि का मन्दिर है अतः देह के प्रति आसक्ति कम करने का उपदेश दिया गया है । अन्त में आचार्य ने स्त्रियों की प्रकृति की विकृति का चित्रण विस्तार के साथ किया है। उस चित्रण का उद्देश्य स्त्रियों की निन्दा करना नहीं अपितु पुरुष के अन्तर्मानस में रही हुई जो स्त्री के प्रति आसक्ति है उसे कम करना है । इसमें जो उपमाएँ स्त्रियों के लिए दी गई हैं वैसी ही उपमाएँ पुरुष के लिए भी हो सकती हैं। स्त्री के लिए पुरुष भी उसी प्रकार हैय है । इस वर्णन में प्रमदा, नारी, महिला, रामा, अंगना, ललना, योषिता, वनिता प्रभृति शब्दों की व्युत्पत्तियाँ दी गई हैं। इन व्युत्पत्तियों से संस्कृति के स्वरूप पर नूतन प्रकाश पड़ता है। अन्त में इस बात पर प्रकाश डाला है कि प्रस्तुत शरीर जन्म, जरा, मरण एवं वेदनाओं से भरा हुआ एक प्रकार का शकट है। अतः ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे सम्पूर्ण दुःखों से मुक्ति प्राप्त हो सके । (६) संस्तारक जैन साधना पद्धति में संथारा-संस्तारक का अत्यधिक महत्त्व है । जीवन भर में जो भी श्रेष्ठ और कनिष्ठ कृत्य किये हों उसका लेखा लगाकर अन्तिम समय में समस्त दुष्प्रवृत्तियों का परित्याग करना, मन, वाणी और
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy