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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
ही मन भी कभी निर्विषय नहीं होता । चंचल मन को वश में करने के लिए हिंसा का त्याग करना चाहिए, दयाधर्म की आराधना करनी चाहिए। जीव हिंसा करना अपने आपकी हिंसा करने के समान है। हिंसा का फल सदा कटु है अत: अहिंसा का आचरण करना चाहिए। असत्य भाषण से भी जीवन में संक्लेश प्राप्त होता है, अतः असत्य भाषण को त्याग कर सत्य को धारण करना चाहिए। अदत्तादान, अब्रह्म और परिग्रह को त्याग कर तथा शल्य रहित होकर इन्द्रियनिग्रह करना चाहिए । इन्द्रियों का जो विषय-सुख है वह विष के समान भयंकर है। कषाय पर विजय वैजयन्ती फहराते हुए जिनेश्वर देवों की आज्ञा के अनुसार आचरण करते हुए दृढ़ संकल्प करना चाहिए । भक्तपरिज्ञा के समय वेदना को शान्त भाव से सहन करना चाहिए, प्रतिज्ञा का दृढ़ता से पालन कर नमस्कार महामंत्र का जाप करना चाहिए ।
भक्तपरिज्ञा का फल है कि साधक जघन्य सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होता है । उत्कृष्ट गृहस्थ साधक अच्युत कल्प में पैदा होता है । श्रमण सर्वार्थसिद्ध में या निर्वाण को प्राप्त होता है ।
प्रस्तुत प्रकीर्णक के कर्ता वीरभद्र हैं। गुणरत्न ने इस पर अवचूरि भी लिखी है।
(५) तन्दुल वैचारिक
प्रस्तुत ग्रन्थ में सौ वर्ष की आयु वाला व्यक्ति कितना तन्दुल यानि चावल खाता है इस संख्या पर विशेष रूप से चिन्तन करने के कारण उपलक्षण से इसका नाम तन्दुलवैचारिक (तन्दुलवेयालिय ) रखा गया है। इस प्रकीर्णक में १३९ गाथाएँ हैं। बीच-बीच में कुछ गद्यसूत्र भी हैं। इसमें मुख्य रूप से गर्भविषयक वर्णन है ।
सर्वप्रथम भगवान महावीर को नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात् जिसकी आयु सौ वर्ष की है, परिगणना करने पर उसकी जिस प्रकार दस अवस्थाएँ होती हैं, और उन दस अवस्थाओं को संकलित कर निकाल देने पर उसकी जितनी आयु अवशेष रहती है उसका वर्णन किया गया है।
१ इल जोइसर जिणवीरभद्मणिबाणुसारिणीमिणमो ।
भत्तपरिन्नं धन्ना पति णिसुणंति भावेति ॥
२ प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० १२५ ।
-वही, १७१