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अंगबाह्य आगम साहित्य ३६१ द्वादशाङ्गश्रुत का चिन्तन असम्भव है अतः उस समय संवेग की वृद्धि करता हुआ साधक चार मंगल, चार शरण को ग्रहण कर एवं सर्व पाप का प्रत्याख्यान कर तप की आराधना व साधना करता हुआ कर्मों को क्षय करता है। यदि उत्कृष्ट आराधना होती है तो वह उसी भव में मोक्ष प्राप्त करता है, जघन्य व मध्यम आराधना से सात-आठ भव में मोक्ष प्राप्त करता है।
ग्रन्थ में सर्वत्र प्रत्याख्यान का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। वास्तविक आनन्द व अक्षय शान्ति के लिए भोगों का त्याग आवश्यक है। प्रत्याख्यान से साधना प्रदीप्त होती है । त्याग-वैराग्य दृढ़ होता है।
(४) भक्तपरिज्ञा प्रस्तुत प्रकीर्णक में भक्तपरिज्ञा नामक मरण का विवेचन मुख्य रूप से होने के कारण इसका नाम भक्तपरिज्ञा है । इसमें १७२ गाथाएं हैं। - वास्तविक सुख की उपलब्धि जिनाज्ञा की आराधना से होती है। पण्डितमरण से आराधना पूर्णतया सफल होती है। पण्डितमरण (अभ्युद्यत मरण) के भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और पादपोपगमन ये तीन भेद किये हैं।'
भक्तपरिज्ञा मरण के भी सविचार और अविचार ये दो भेद किये हैं। भक्तपरिज्ञा का वर्णन करते हुए कहा है कि जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है उसकी मुक्ति नहीं होती। सम्यग्दर्शन से जो युक्त है वही मुक्ति का अधिकारी है ।२ सम्यग्दर्शन मुक्ति में भी साथ रहता है। सम्यग्दर्शन से रहित साधक उत्कृष्ट चारित्र की साधना करने के बावजूद भी कर्मों की उतनी निर्जरा नहीं कर पाता जितनी सम्यग्दष्टि साधक स्वल्प साधना से कर लेता है। संसाररूपी भव-समुद्र को तिरने के लिए सम्यग्दर्शनपूर्वक अणुव्रत, महाव्रत रूप चारित्र की आराधना आवश्यक है। मन को वश में करने के लिए अनेक दृष्टान्त दिये गये हैं। मन को बन्दर की उपमा देते हुए कहा है कि जैसे बन्दर एक क्षणमात्र के लिए भी शान्त नहीं बैठ सकता वैसे
१ त अब्भुज्जअमरणं अमरणथम्मेहि वनि तिविहं ।
भत्तपरिना इंगिणि पाओवगर्म च धीरेहिं ।।
-भक्तपरिज्ञा, गा.
२ दसणमट्ठो भट्ठो दसणभट्ठस्स नत्षि निव्वाणं । सिझति चरणरहिआ दंसणरहिआ न सिझंति ॥
-वही, गा०६६