SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा पापस्थानकों का त्याग, केवल आत्मा का अवलम्बन, निश्चयदृष्टि से केवल आत्मा ही ज्ञान-दर्शनादि रूप है, एकत्व भावना, प्रतिक्रमण-आलोचना, क्षमायाचना। आचार्य ने मरण के बाल, बालपण्डित और पण्डित ये तीन प्रकार बताये हैं। बालमरण मरने वाला विराधक होता है, उसे बोधि दुर्लभ होती है, अनन्त संसार बढ़ जाता है। पण्डितमरण में जीव आहारादि का त्याग कर, जिन-वचन पर दृढ़ श्रद्धा रखते हए, मरण के भय से मुक्त होकर कालधर्म प्राप्त करते हैं और आराधक होकर तीन भव में मुक्ति को प्राप्त करते हैं। शीलवान और शीलरहित की मृत्यु में, धीर और अधीर की मृत्यु में दिन-रात का अन्तर होता है। इस प्रकार इसमें बाल और पण्डित मरण का विस्तृत वर्णन है । इसमें प्रत्याख्यान को शाश्वत गति का साधक बताया है। इसके रचयिता वीरभद्र माने जाते हैं । (३) महाप्रत्याख्यान महाप्रत्याख्यान (महापच्चक्खाण) प्रकीर्णक में त्याग का विस्तृत वर्णन है। इसमें १४२ गाथाएँ हैं। - ग्रन्थ के प्रारम्भ में तीर्थकर, जिन, सिद्ध और संयतों को नमस्कार किया है और पाप व दुश्चरित्र की निन्दा करते हए उनके प्रत्याख्यान पर बल दिया है। ममत्व-त्याग को महत्त्व दिया है। निश्चयदृष्टि से आत्मा ही ज्ञान, दर्शन व चारित्र रूप है। साधक को मूलगुण और उत्तरगुणों का प्रतिक्रमण करना चाहिए, पापों की आलोचना, निन्दा और गर्दा करनी चाहिए । जो निश्शल्य होता है उसी की शुद्धि होती है। सशल्य की शुद्धि नहीं होती। सर्वविरत की आराधना व प्रत्याख्यान शुद्ध होता है। पण्डितमरण मरने वाला जानता है कि संसार अशरणभूत है, कामभोगों से कदापि तृप्ति नहीं हो सकती अत: पंचमहाव्रत की रक्षा करता हुआ, निदानरहित होकर मरण की प्रतीक्षा करता है। कर्मों को क्षय करता है। ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मक्षय में महान अन्तर है। अन्तिम समय में १ तिविहं भणंति मरणं बालाणं बालपंडियाणं च। तइयं पंडितमरणं जं केवलिणो अणुमरंति ॥३५॥ २ वही, गा०६८-७० -आतुर० गाथा ३५
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy