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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य ३८६ है, न परिजन और न पत्नी ही उसे शरण दे पाती है। उस समय मानव अपने आपको असहाय अनुभव करता है अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में कहा है कि 'मानव तू भयभीत न बन । तु अन्य किसी की भी शरण में मत जा किन्तु अरिहंत, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म की शरण को ग्रहण कर । यही सच्चा और अच्छा शरण है ।" इसीलिए इस ग्रन्थ का नाम चतुःशरण है । चतुःशरण ही कुशल का कारण है अतः इसे कुशलानुबंधि कहा है। प्रारम्भ में षडावश्यक पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि सामायिक आवश्यक से चारित्र की शुद्धि होती है, चतुर्विंशति जिनस्तवन से दर्शन की विशुद्धि होती है, वन्दन से ज्ञान में निर्मलता आती है । प्रतिक्रमण से ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों में विशुद्धि होती है। कायोत्सर्ग से तप की शुद्धि होती है और पच्चक्खाण से वीर्य की विशुद्धि होती है। ग्रन्थ के अन्त में वीरभद्र का उल्लेख होने से प्रस्तुत प्रकीर्णक के रचयिता वीरभद्र माने जाते हैं। इस पर भुवनतुंग की वृत्ति और गुणरत्न की अवचूरि भी प्राप्त होती है। (२) आतुरप्रत्याख्यान (आउरपच्चक्खाण) आतुरप्रत्याख्यान मरण से सम्बन्धित है। इसके कारण इसे अन्तकाल प्रकीर्णक भी कहा गया है। इसका दूसरा नाम 'वृहदातुरप्रत्याख्यान' भी है। इस प्रकीर्णक में ७० गाथाएँ हैं। दस गाथा के पश्चात् कुछ भाग गद्य में है । प्रथम बालपण्डितमरण की व्याख्या की है। देशयति की व्याख्या करते हुए पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत, संलेखना बालपंडित का वैमानिकों में उपपात और उनकी सात भव से सिद्धि बताई है । पण्डितमरण में अतिचारों की शुद्धि, जिनवन्दना, गणधरवन्दना, सर्वप्राणातिपात, सर्वमृषावाद, सर्वअदत्तादान, सर्वअब्रह्म और सर्वपरिग्रहविरति, संथारे की प्रतिज्ञा, सामायिक, सर्वबाह्याभ्यन्तर उपधि, अठारह १ अरिहंत सिद्ध साहू केवलिकहिओ सुहावहो धम्मो । एए चउरो चउगइहरणा, सरणं लहइ धन्नो ॥११॥ १२ वही, गा० ६ ३ वही, गा० ६३ - चतुरशरण, गा० ११
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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