SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकीर्णक नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते हैं। अथवा श्रुत का अनुसरण करके वचनकौशल से धर्मदेशना आदि के प्रसंग से श्रमणों द्वारा कथित जो रचनायें हैं वे भी प्रकीर्णक कहलाती हैं । श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ में प्रकीर्णकों की संख्या १४००० मानी गई है। वर्तमान में प्रकीर्णकों की मुख्य संख्या दस है। वे ये हैं (१) चतु:शरण, (२) आतुरप्रत्याख्यान, (३) महाप्रत्याख्यान, (४) भक्तपरिज्ञा, (५) तन्दुलवैचारिक, (६) संस्तारक, (७) गच्छाचार, (८) गणिविद्या, (६) देवेन्द्रस्तव, (१०) मरणसमाधि । किन्तु इन नामों में भी एकरूपता नहीं है। किन्हीं ग्रन्थों में मरणसमाधि और गच्छाचार के स्थान पर चन्द्रवेध्यक और बीरस्तव को गिना है तो किन्हीं ग्रन्थों में देवेन्द्रस्तव और वीरस्तव को सम्मिलित कर दिया गया है किन्तु संस्तारक की परिगणना न कर उसके स्थान पर गच्छाचार और मरणसमाधि का उल्लेख करते हैं। (१) चतुःशरण चतुःशरण का अपरनाम कुशलानुबन्धि अध्ययन भी है । इसमें ६३ गाथाएं हैं। इस विराट् विश्व में सर्वत्र अशान्ति का साम्राज्य है। झोंपड़ियाँ कष्ट से आकुल-व्याकुल हैं तो भव्य-भवन के निवासी भी दुःख की ज्वालाओं में झुलस रहे हैं। दरिद्र भी दुःखी है तो धनवान का हृदय भी दुःख से प्रकंपित है। सभी असहाय हैं, निरुपाय हैं। संसार में जितने भी भौतिक पदार्थ हैं वे मानव को शरण नहीं दे सकते। तन, धन, जन, परिजन, असन, वसन, भवन, सभी जीवन के अन्तिम क्षणों में शरणभूत नहीं होते, पर मानव दीवाना बनकर इनके पीछे रात-दिन लगा हआ है। जिस समय कर काल के काले कजराले बादल मंडराते हैं उस समय न धन शरण देता
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy