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________________ - जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन १३ एतदर्थ ही समवायांग' एवं नन्दीसूत्र में स्पष्ट कहा है-द्वादशांगभूत गणिपिटक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, और कभी नहीं होगा, यह भी नहीं। वह था, है, और होगा। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। ... अंगबाह्य श्रुत वह होता है : ... (१) जो स्थविर कृत होता है, (२) जो बिना प्रश्न किये तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित होता है। वक्ता के भेद की दृष्टि से भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद किये गये हैं। जिस आगम के मूलवक्ता तीर्थकर हों और संकलनकर्ता गणधर हों वह अंगप्रविष्ट है। पूज्यपाद ने वक्ता के तीन प्रकार बतलाये हैं(१) तीर्थकर (२) श्रुतकेवली (३) आरातीय । आचार्य अकलंक ने कहा है कि आरातीय आचार्यों के द्वारा निर्मित आगम अंगप्रतिपादित अर्थ के निकट या अनुकूल होने के कारण अंगबाह्य कहलाते हैं । . समवायांग और अनुयोगद्वार में तो केवल द्वादशांगी का ही निरूपण है किन्तु नन्दीसूत्र में अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य का तो भेद किया ही गया है, साथ ही अंगबाह्य के आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक रूप में आगम की सम्पूर्ण शाखाओं का परिचय दिया गया है जो इस प्रकार है १ दुवालसंगे णं गणिपिडगे ण कयावि पत्थि, ण कयाइ णासी, " कयाइ ण भविस्स। भुवि च, भवति य, भविस्सति य, अयले, धुवे, णितिए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए णिच्चे। -समवायांग, समवाय १४८, मुनि कन्हैयालाल 'कमल' सम्पादित, पृ० १३८ २ नन्दीसूत्र ५७ ३ वक्तूविशेषाद् द्वैविध्यम् । .. -तस्वार्थ भाष्य १२२० ४ यो वक्तारः ---सर्वज्ञस्तीर्थकर; इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति । -सर्वार्थसिद्धि ११२० पूज्यपाद ५ आरातीयाचार्यकृतांगार्थप्रत्यासन्नरूपमंगवाह्यम्। -तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ११२०, अकलंक
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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