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अंगबाह्य आगम साहित्य ३८५ को दूर कर देता है; आत्मा उस भार से हल्का हो जाता है और अपने को स्वस्थ, सुखमय और आनन्दमय अनुभव करता है ।
कायोत्सर्ग में 'काय' और 'उत्सर्ग' ये दो शब्द हैं जिनका अर्थ है शरीर की ममता को त्याग कर अंतर्मुख होना । शरीर की ममता साधना में सबसे ast बाधक है जो कि साधक के लिए विष समान है। कायोत्सर्ग शरीर और आत्मा को अलग समझने की कला है। यह शरीर अलग है और मैं अलग हैं। शरीर विनाशी और पौद्गलिक है जबकि आत्मा अजर, अमर, अविनाशी और चैतन्यस्वरूप है। कायोत्सर्ग के भी द्रव्य और भाव ये दो भेद हैं । द्रव्य की अपेक्षा भाव का अधिक महत्त्व है। द्रव्य और भाव को समझाने के लिए चार रूप बताये हैं। उत्थित उत्थित - वह साधक शरीर से भी खड़ा रहता है और धर्म व शुक्ल ध्यान में भी रमण करता है। जैसे गजसुकुमाल मुनि । उत्थित निविष्ट —– जो साधक द्रव्य रूप से तो खड़ा होता है किन्तु आतंरौद्र ध्यान में लगा रहने से बैठ जाता है अर्थात् शरीर से खड़ा है किन्तु आत्मा से बैठा है । उपविष्ट उत्थित शारीरिक अस्वस्थता के कारण खड़ा नहीं होता व भाव से वह धर्म व शुक्ल ध्यान में रमण कर रहा है इसलिए शरीर से बैठा है किन्तु आत्मा से खड़ा है । उपविष्ट निविष्ट- जो साधक आलसी, कर्तव्यशून्य है वह शरीर से भी बैठा है और सांसारिक विषयभोगों की कल्पना में ही उलझा रहने से उपविष्ट निविष्ट है। यह कायोत्सर्ग नहीं किन्तु कायोत्सर्ग का दम्भ है।
छठा अध्ययन 'प्रत्याख्यान आवश्यक' का है। संसार में जितनी भी वस्तुएँ हैं उन्हें एक व्यक्ति भोग नहीं सकता। भोग के पीछे पागल बनकर मानव कदापि शांति नहीं पा सकता। वास्तविक आनन्द भोगों के त्याग में है । अतः प्रत्याख्यान में साधक भोगों को व पदार्थों को त्याग करता है। अन्न, वस्त्र आदि त्यागना द्रव्यप्रत्याख्यान है और मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम का त्याग भावप्रत्याख्यान है । द्रव्यप्रत्याख्यान की आधारभूमि भावप्रत्याख्यान है ।
अनुयोगद्वार में प्रत्याख्यान का दूसरा नाम 'गुणधारण' है। गुणधारण का अर्थ है व्रतरूप गुणों को धारण करना । प्रत्याख्यान के द्वारा आत्मा मन, वचन, काया को दुष्ट प्रवृत्तियों से रोककर शुभ प्रवृत्तियों में केन्द्रित करता है । जैसे इच्छा निरोध, तृष्णात्याग आदि सद्गुणों की प्राप्ति ।