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३८४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा में भय का भूत नाच रहा हो; लज्जा, प्रलोभन व स्वार्थ अंगडाइयाँ लेते हों वह सच्चे अर्थ में वन्दन नहीं है। वन्दन तो आत्मशुद्धि का मार्ग है । वन्दन के भी द्रव्य और भाव ये दो रूप हैं। द्रव्यवन्दन के साथ भाववन्दन होने से जीवन में अभिनव चेतना का प्रादुर्भाव होता है।
चतुर्थ अध्ययन का नाम 'प्रतिक्रमण' है। प्रतिक्रमण का अर्थ है --- शुभयोगों से अशुभयोगों में गयी हुई अपनी आत्मा को पुन: शुभयोगों में लौटाना। अशुभयोग से निवृत्त होकर निशल्यभाव से उत्तरोत्तर शुभयोगों में प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है।
साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग ये अत्यधिक भयंकर माने गये हैं। प्रत्येक साधक को इन दोषों का प्रतिदिन प्रतिक्रमण करना चाहिए। मिथ्यात्व का परित्याग कर सम्यक्त्व में आना चाहिए। अविरति को त्यागकर विरति को स्वीकार करना चाहिए। प्रमाद के बदले में अप्रमाद, कषाय का परिहार कर क्षमादि को धारण करना चाहिए और संसार की वृद्धि करने वाले अशुभयोगों के व्यापार को त्याग कर शुभयोगों में रमण करना चाहिए।
काल विशेष की अपेक्षा से प्रतिक्रमण के पांच भेद माने गये हैं(१) देवसिय, (२) रात्रिक, (३) पाक्षिक, (४) चातुर्मासिक, और (५) सांवत्सरिक।
पांचवें अध्ययन में कायोत्सर्ग का वर्णन है। कायोत्सर्ग का अनुयोगद्वारसूत्र में दूसरा नाम व्रणचिकित्सा है। धर्म की साधना करते समय प्रमादवश अहिंसा, सत्य प्रति व्रतों में जो अतिचार लग जाते हैं, स्खलनाएं हो जाती हैं वे संयमरूपी शरीर के घाव हैं। कायोत्सर्ग में उन घावों पर मरहम लगाया जाता है। कायोत्सर्ग वह औषधि है जो घावों को भर कर संयम को पुष्ट करती है। कायोत्सर्ग एक प्रकार का प्रायश्चित्त है जो पुराने पापों को धोकर साफ करता है, इसीलिए शास्त्रकार ने कहा कि संयमी जीवन को विशेष रूप से परिष्कृत करने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, विशुद्धि करने के लिए, आत्मा को शल्यरहित बनाने के लिए, पापकर्मों के निर्घात के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है।
भगवान महावीर ने पापकर्मों को भार की उपमा दी है। किसी के सिर पर भार हो तो वह कितने कष्ट का अनुभव करता है और भारमुक्त होने पर कैसी शान्ति का अनुभव करता है ! वैसे ही कायोत्सर्ग पाप के भार