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अंगबाह्य आगम साहित्य ३८३ सावधयोग से विरति होती है तो उसे किस कार्य में प्रवृत्ति करनी चाहिए? इसके लिए चतुविशतिस्तव आवश्यक बताया है। जो सामायिक साधना के लिए आलंबन स्वरूप है।
चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति से साधक को महान आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है। उसका मिथ्या अहंकार नष्ट हो जाता है और वर्षों से संचित कर्म उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे अग्नि की नन्ही-सी प्रज्ज्वलित चिनगारी घास के विराट ढेर को भस्म कर देती है। तीर्थंकरों की स्तुति अन्त:करण का स्नान है। उससे स्फूर्ति, पवित्रता व बल प्राप्त होता है। भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से तीर्थंकर महान् हैं, उनकी स्तुति करने का अर्थ हैउनके सद्गुणों को, उनके उच्च आदर्शों को अपने जीवन में मूर्तरूप देना।
तृतीय अध्ययन 'वन्दन' आवश्यक है। द्वितीय अध्ययन में तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तन किया है क्योंकि तीर्थंकर देव हैं। देव के बाद गुरु का नम्बर है, अतः तृतीय आवश्यक में गुरुदेव. को वन्दन किया है। मन, वचन और काया का वह प्रशस्त व्यापार जिससे सद्गुरुदेव के प्रति भक्ति व बहुमान प्रगट हो, 'वन्दन' है। आवश्यकनियुक्ति में वन्दन के चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म आदि पर्याय दिये हैं।
यह स्मरण रहना चाहिए कि मानव का महान् मस्तक हर किसी के चरणों में झकाने के लिए नहीं है। जैनधर्म गुणों का उपासक है। सद्गुणी के चरणों में सिर झुकाने को वह उपादेय मानता है और गुणहीन व्यक्ति के चरणों में झुकाने को हेय । असंयमी, पतित व दुराचारी को वन्दन करने का अर्थ है असंयम को प्रोत्साहन देना। इसीलिए नियुक्तिकार ने कहा है जो मानव गुणहीन, अवंद्य व्यक्ति को वन्दन करता है, तो न तो उसके कर्मों की निर्जरा होती है और न कीति की ही प्राप्ति; बल्कि असंयम का, दुराचार का अनुमोदन करने से कर्मों का बन्ध ही होता है। जैसे अवंद्य को वन्दन करने से दोष लगता है वैसे ही वन्दन कराने वाले को भी दोष लगता है। अतः भद्रबाहु स्वामी ने कहा है--यदि अवंदनीय व्यक्ति गुणी पुरुषों द्वारा वन्दन कराता है तो वह असंयम में और भी वृद्धि करके अपना अध:पतन करता है।
जिसका जीवन त्याग-वैराग्य से ओतप्रोत है, निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से जिसका जीवन पवित्र व निर्मल है वह सद्गुरु है । उसको भक्तिभाव से विभोर होकर वन्दन करना चाहिए। जिस वन्दन की पृष्ठभूमि