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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
आवश्यक के छह प्रकार बताये गये हैं- ( १ ) सामायिक, (२) चतुविंशतिस्तव, (३) वन्दन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान । ये छह प्रकार ही आवश्यक के छह अध्ययन हैं। आवश्यक का १०० लोक प्रमाण मूलपाठ है और ११ गद्यसूत्र हैं व ९ पद्यसूत्र हैं।
प्रथम अध्ययन में सामायिक का वर्णन है। यह प्रतिज्ञासूत्र है । इसके प्रत्येक शब्द में त्याग-वैराग्य का पयोधि उछालें मार रहा है। जितने भी तीर्थंकर होते हैं वे साधना के पथ में बढ़ने के समय इस मंगल पाठ का उच्चारण करते हैं ।
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सामायिक उत्कृष्ट साधना है। जैसे अनन्त आकाश समस्त चर-अचर वस्तुओं का आधार है वैसे ही समस्त आध्यात्मिक साधना का आधार सामायिक है। मधुमक्खी के छत्ते में जब तक रानीमक्खी रहती है तब तक हजारों मक्षिकाएँ रहती हैं। उसके चले जाने पर पीछे कोई मक्खी नहीं रहती। वैसे ही समभाव की रानीमक्खी रहने पर सभी सद्गुणरूपी मक्षिकाएँ आ जाती हैं ।
सामायिक का अर्थ समता है। सामायिक में साधक को विषमभाव से हटकर समभाव में स्थिर होना चाहिए। रागद्वेष को त्यागकर आत्मस्वरूप में रमण करना चाहिए। साधक जब सावद्ययोग से विरत होता है, छहकाय के जीवों के प्रति संयत होता है, मन-वचन-काया को एकाग्र करता है, स्व-स्वरूप में विचरण करता है तब सामायिक की साधना सम्पन्न होती है । सामायिक की साधना महान् साधना है। अन्य जितनी भी साधनाएँ हैं उनका मूल सामायिक में है । एतदर्थं ही उपाध्याय यशोविजयजी ने सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशांगी रूप जिनवाणी का सार कहा है और जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने सामायिक को १४ पूर्व का अर्थपिण्ड कहा है । वह आवश्यक का आदिमंगल है ।
सामायिक के सम्बन्ध में वर्तमान में भ्रान्त धारणाएँ चल रही हैं पर उन भ्रान्त धारणाओं का मूल साधना करने वाले की उपयोगशून्यता है । सामायिक में सावद्ययोग का त्याग कर स्व-स्वरूप में रमण करने के साथ ध्यान व स्वाध्याय में तल्लीन रहना चाहिए। किन्तु किसी की निन्दा व विकथा नहीं करनी चाहिए। समभाव ही योग का मूल मंत्र है। गीता में भी कृष्ण ने 'समत्वम् योगमुच्यते' कहा है ।
आवश्यक सूत्र का दूसरा अध्ययन चतुर्विंशतिस्तव है । सामायिक में