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________________ ५. आवश्यकसूत्र आवश्यक जनसाधना का मूल प्राण है। वह जीवन-शुद्धि और दोषपरिमार्जन का महासूत्र है। साधक चाहे कितना भी अभ्यासी हो किन्तु यदि उसे आवश्यक का परिज्ञान नहीं है तो समझना चाहिए कि उसे कुछ भी ज्ञान नहीं है। आवश्यक साधक की अपनी आत्मा को परखने का, निरखने का एक महान उपाय है। जैसे वैदिक परम्परा में संध्या है, बौद्ध परम्परा में उपासना है और ईसाई धर्म में प्रार्थना है। इस्लाम धर्म में जैसे नमाज है वैसे ही जैनधर्म में दोषशुद्धि और गुणवृद्धि हेतु आवश्यक है। जो चतुविध संघ के लिए प्रतिदिन अवश्य करने योग्य है वह आवश्यक है। अनुयोगद्वारसूत्र में आवश्यक के आवश्यक, अवश्य करणीय, ध्रुव निग्रह, विशोधि, अध्ययन षट्कवर्ग, न्याय, आराधना, मार्ग आदि ये पर्याय बताए हैं। जैन साधना पद्धति में द्रव्य और भाव पर गंभीर चिन्तन किया है। प्रत्येक क्रिया द्रव्य और भाव रूप से की जाती है। बहिर्ट ष्टि वाले द्रव्यप्रधान होते हैं जबकि अन्तर्दृष्टि वाले भावप्रधान। आवश्यक के भी द्रव्य और भाव ये दो रूप हैं। द्रव्यआवश्यक का अर्थ है अन्तरंग उपयोग के बिना केवल परम्परा की दृष्टि से साधना करना । उसमें मन बिना लगाम के घोड़े की तरह या चंचल बन्दर की तरह इधरउधर भटकता रहता है और विवेकहीन साधना चलती रहती है। वह द्रव्यसाधना अन्तर्जीवन को प्रकाश प्रदान नहीं कर सकती अत: केवल द्रव्यसाधना, साधना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण नहीं है। वह प्राणरहित मुर्दे के सदृश है, उसमें प्राणों का परिस्पंदन नहीं है। किन्तु सामायिक आदि भावआवश्यक विवेकपूर्वक बिना किसी कामना के केवल विशुद्ध जिनाज्ञा के अनुसार मन, वचन और काया को एकाग्र बनाकर आवश्यक सम्बन्धी मूल पाठों के अथों पर चिन्तन-मनन के साथ निजात्मा को कर्ममल से दूर करने के लिए दोनों समय करना चाहिए। बिना भाव-आवश्यक के आत्म-शुद्धि कथमपि संभव नहीं है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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