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________________ ३७८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा में विशाखाचार्य के संबंध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। दिगंबर पट्टावली में भद्रबाहु के पश्चात् विशाखाचार्य का नाम आया है जो दशपूर्वी थे। दिगंर दृष्टि से वीर नि० सं० १६२ वर्ष तक भद्रबाहु थे। उसके पश्चात् विशाखाचार्य का युग प्रारंभ होता है। प्रशस्ति में निशीथ को विशाखाचार्यकृत कहा गया है । यहाँ पर लिखित का अर्थ निर्मित है या लिपिकृत है, यह चिन्तनीय है । क्योंकि ऐसा कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है कि निशीथ की रचना दशपूर्वी द्वारा की गई हो; जबकि चतुर्दशपूर्वी द्वारा लिखने के उल्लेख हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि निशीथ के रचयिता चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु हैं। पंचकल्पचूर्णि में आचारप्रकल्प ( निशीथ ), दशा, कल्प और व्यवहार इन चार आगमों के निर्यूहक भद्रबाहु स्वामी बताये हैं। विशाखाचार्य ने उसे लिखा होगा। यदि यह कल्पना करें तो प्रस्तुत कथन की संगति बैठ सकती है। दिगंबर आचार्यों ने निशीथ को आरातीय आचार्यकृत माना है किन्तु जो निशीथ का वर्तमान रूप है वह दिगंबर परंपरा में प्राप्त नहीं है। यदि दिगंबर परंपरा के विशाखाचार्य द्वारा यह लिखित होता तो दिगंबर परंपरा में उसकी मान्यता प्राप्त होनी चाहिये थी। संभव है विशाखाचार्य श्वेतांबर परंपरा के ही आचार्य हों । विशाखाचार्य का गुणकीर्तन प्रशस्ति की गाथाओं में है। इससे यह सिद्ध होता है कि ये गाथाएँ विशाखाचार्य द्वारा रचित नहीं है। इन गाथाओं की रचना किसने की, यह भी अन्वेषणीय है । पं० मुनिश्री कल्याणविजयजी गणी का स्पष्ट मन्तव्य है कि बृहत्कल्प और व्यवहार इन दोनों आगमों को पूर्वश्रुत से निर्यूढ करने वाले भद्रबाहु स्वामी हैं और निशीथाध्ययन के निर्यूढकर्ता भद्रबाहु न होकर आर्यरक्षित सूरि हैं। भद्रबाहु स्वामी ने कल्प और व्यवहार में जो प्रायश्चित्त का विधान किया वह तत्कालीन श्रमण श्रमणियों के लिए पर्याप्त था किन्तु आर्यरक्षित सूरि के समय तक परिस्थिति में अत्यधिक परिवर्तन हो चुका था। मौर्यकालीन दुर्भिक्षादि की स्थिति समाप्त हो चुकी थी। राजा सम्प्रति मौर्य के समय श्रमण श्रमणियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो चुकी थी । श्रमणों की संख्या की अभिवृद्धि के साथ अनेक नवीन समस्याएँ भी उपस्थित हो चुकी अतः कल्प और व्यवहार का प्रायश्चित्त विधान अपर्याप्त प्रतीत हुआ । एतदर्थ नवीन स्थितियों पर नियंत्रण करने के लिए विस्तार से प्रायश्चित्त विधान बनाना आवश्यक था, अतः आर्यरक्षित ने पूर्व साहित्य से वह निर्यूढ किया। कल्पाध्ययन में छह उद्देशक थे, व्यवहार में दस उद्देशक थे तो
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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