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अंगबाह्य आगम साहित्य ३६३ वर्षाऋतु में वहाँ नहीं रह सकते। यदि दो हाथ से अधिक ऊँची है तो वहाँ वर्षाऋतु में रह सकते हैं।
पंचम उद्देशक में बताया है कि यदि कोई देव स्त्री का रूप बनाकर साधु का हाथ पकड़े और वह साधु उसके कोमल स्पर्श को सुखरूप माने तो उसे मैथुन प्रतिसेवन दोष लगता है और उसे चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार साध्वी को भी उसके विपरीत पुरुष स्पर्श का अनुभव होता है और उसे सुखरूप माने तो चातुर्मासिक गुरु- प्रायश्चित्त आता है ।
कोई श्रमण बिना क्लेश को शांत किए अन्य गण में जाकर मिल जाय और उस गण के आचार्य को ज्ञात हो जाय कि यह श्रमण वहाँ से कलह करके आया है तो उसे पाँच रातदिन का छेद देना चाहिए और उसे शान्त कर अपने गण में पुन: भेज देना चाहिए।
सशक्त या अशक्त श्रमण सूर्योदय हो चुका है या अभी अस्त नहीं हुआ है ऐसा समझकर यदि आहारादि करता है और फिर यदि उसे यह ज्ञात हो जाय कि अभी तो सूर्योदय हुआ ही नहीं है या अस्त हो गया है तो उसे आहारादि तत्क्षण त्याग देना चाहिए। उसे रात्रिभोजन का दोष नहीं लगता । सूर्योदय और सूर्यास्त के प्रति शंकाशील होकर आहारादि करने वाले को रात्रिभोजन का दोष लगता है। श्रमण श्रमणियों को रात्रि में कारादि के द्वारा मुंह में अन्न आदि आ जाय तो उसे बाहर थूक देना चाहिए ।
यदि आहारादि में द्वीन्द्रियादि जीव गिर जाय तो यतनापूर्वक निकाल कर आहारादि करना चाहिए। यदि निकलने की स्थिति में न हों तो एकान्त निर्दोष स्थान में परिस्थापन कर दे। आहारादि लेते समय सचित पानी की बूंदें आहारादि में गिर जाँय और वह आहार गरम हो तो उसे खाने में किंचित् मात्र भी दोष नहीं है क्योंकि उसमें पड़ी हुई बूंदें अचित्त हो जाती हैं। यदि आहार शीतल है तो न स्वयं खाना चाहिए और न दूसरों को खिलाना चाहिए अपितु एकान्त स्थान पर परिस्थापन कर देना चाहिए।
निर्ग्रन्थी को एकrat रहना, नग्न रहना, पात्ररहित रहना, ग्रामादि के बाहर आतापना लेना, उत्कटुकासन, वीरासन, दंडासन, लगुडशायी आदि आसन पर बैठकर कायोत्सर्ग करना वर्ज्य है।