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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
जिनमें महाव्रतों की स्थापना नहीं की है उन्हें दे देना चाहिए। यदि वह न हो तो निर्दोष स्थान पर परठ देना चाहिए।
आलक्य आदि कल्प में स्थित श्रमणों के लिए निर्मित आहारादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्पनीय है । जो आहारादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए निर्मित हो वह कल्पस्थित श्रमणों के लिए अकल्प्य होता है। यहाँ पर कल्पस्थित का तात्पर्य है 'पंचयाम धर्मप्रतिपन्न' और अकल्पस्थित धर्म का अर्थ है 'चातुर्यामधर्मप्रतिपन्न' ।
किसी निर्ग्रन्थ को ज्ञान आदि के कारण अन्य गण में उपसम्पदा लेनी हो तो आचार्य की अनुमति आवश्यक है। इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक, आदि को भी यदि अन्य गण में उपसम्पदा लेनी हो तो अपने समुदाय की योग्य व्यवस्था करके ही अन्य गण में सम्मिलित होना चाहिए।
संध्या के समय या रात्रि में कोई श्रमण या श्रमणी कालधर्म को प्राप्त हो जाय तो दूसरे श्रमण श्रमणियों को उस मृत शरीर को रात्रिभर सावधानी से रखना चाहिए। प्रातः गृहस्थ के घर से बाँस आदि लाकर मृतक को उससे बाँधकर दूर जंगल में निर्दोष भूमि पर प्रस्थापित कर देना चाहिए, और पुनः बाँस आदि गृहस्थ को दे देना चाहिए।
श्रमण ने किसी गृहस्थ के साथ यदि कलह किया हो तो उसे शांत किये बिना भिक्षाचर्या करना नहीं कल्पता ।
परिहारविशुद्ध चारित्र ग्रहण करने की इच्छा वाले श्रमण को विधि समझाने हेतु पारणे के दिन स्वयं आचार्य, उपाध्याय उसके पास जाकर आहार दिलाते हैं और स्वस्थान पर आकर परिहारविशुद्ध चारित्र का पालन करने की विधि बतलाते हैं ।
श्रमण श्रमणियों को गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका, मही इन पाँच महानदियों में से महीने में एक से अधिक बार एक नदी पार नहीं करनी चाहिए । ऐरावती आदि छिछली नदियाँ महीने में दो-तीन बार पार की जा सकती हैं।
श्रमण श्रमणियों को घास की ऐसी निर्दोष झोंपड़ी में, जहाँ पर अच्छी तरह से खड़ा नहीं रहा जा सके, हेमन्त व गीष्म ऋतु में रहना वर्ज्य है । यदि निर्दोष तृणादि से बनी हुई दो हाथ से कम ऊँची झोंपड़ी है तो