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३६४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को परस्पर मोक (पेशाब या थूक) का आचमन करना अकल्प्य है किन्तु रोगादि कारणों से ग्रहण किया जा सकता है।
परिहार कल्प में स्थित भिक्षु को स्थविर आदि के आदेश से अन्यत्र जाना पड़े तो शीघ्र जाना चाहिए और कार्य करके पुन: लौट आना चाहिए। यदि चारित्र में किसी प्रकार का दोष लगे तो प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध कर लेना चाहिए।
छठे उद्देशक में यह बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अलीक (झूठ) वचन, हीलितवचन, खिसितवचन, परुषवचन, गार्हस्थिकवचन, व्यवशमितोदीरणवचन (शांत हुए कलह को उभारनेवाला वचन) ये छह प्रकार के वचन नहीं बोलना चाहिए।
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अविरति-अब्रह्म, नपुंसक, दास आदि का आरोप लगाने वाले को प्रायश्चित्त आता है।
निर्ग्रन्थ के पैर में कांटा लग गया हो और वह निकालने में असमर्थ हो तो उसे अपवादरूप में निग्रन्थिनी निकाल सकती है। इसी प्रकार नदी आदि में डूबने, गिरने, फिसलने आदि का प्रसंग आये तो साधु साध्वी का हाथ पकड़कर बचाये। इसी प्रकार विक्षिप्तचित्त निर्ग्रन्थी को अपने हाथ से पकड़कर उसके स्थान पर पहुंचा दे, वैसे ही विक्षिप्त साधु को भी साध्वी हाथ पकड़कर पहुँचा दे तो दोष नहीं लगता। पर यह स्मरण रखना चाहिए कि ये अपवादिक सूत्र हैं । इसमें विकारभावना नहीं किन्तु परस्पर के संयम की सुरक्षा की भावना है।
साधु की मर्यादा का नाम कल्पस्थिति है। यह छह प्रकार की है। सामायिक-संयतकल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय संयतकल्पस्थिति, निर्विशमान कल्पस्थिति, निर्विष्टकायिककल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति।
इस प्रकार बृहत्कल्प में श्रमण-श्रमणियों के जीवन और व्यवहार से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डाला है। यही इस शास्त्र की विशेषता है।