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१०.
जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
पुरुषों और महिलाओं के लिए की गई।" जो श्रमण प्रबल प्रतिभा के धनी होते थे, वे पूर्वो का अध्ययन करते थे और जिनमें प्रतिभा की तेजस्विता नहीं होती थी, वे ग्यारह अंगों का अध्ययन करते थे ।
जब तक आचारांग आदि अंग साहित्य का निर्माण नहीं हुआ था तब तक भगवान महावीर की श्रुतराशि चौदह पूर्व या दृष्टिवाद के नाम से ही पहचानी जाती थी। जब आचार प्रभृति ग्यारह अंगों का निर्माण हो गया तब दृष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में स्थान दे दिया गया।
आगम साहित्य में द्वादश अंगों को पढ़ने वाले और चौदह पूर्व पढ़नेवाले दोनों प्रकार के साधकों का वर्णन मिलता है किन्तु दोनों का तात्पर्य एक ही है। जो चतुर्दशपूर्वी होते थे, वे द्वादशांगवित् भी होते थे क्योंकि बारहवें अंग में चौदह पूर्व हैं ही।
अङ्ग
जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही भारतीय परम्पराओं में 'अङ्ग' शब्द का प्रयोग हुआ है । जैन परम्परा में उसका प्रयोग मुख्य आगम ग्रन्थ गणिपिटक के अर्थ में हुआ है । 'दुवालसंगे गणिपिडगे" कहा गया है।
(१) आचार ( २ ) सूत्रकृत् (३) स्थान ( ४ ) समवाय ( ५ ) भगवती (६) ज्ञाताधर्मकथा ( ७ ) उपासक दशा (८) अन्तकृत् दशा (2) अनुत्तरोप
१ (क) जइवि य भूतावाएं, सब्वस्सवओगयस्स ओयारो । निज्जहणा तहावि हु, दुम्मेहे पप्प इत्थी य ॥ -विशेषावश्यक भाष्य गा० ५५४
(ख) प्रभावक चरित्र, श्लो० ११४-१६, प्रभाचन्द्र सूरि २ (क) चोट्सपुम्वाई अहिज्जइ ।
(ख) सामाइयमाइयाई चोदसपुव्वाई अहिज्जइ । (ग) भगवती ११-११-४३२ । १७-२-६१७ । ३ (क) सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिज्जइ । (ख) वही, ८ वर्ग अ० १
(ग) भगवती २।१४९
(घ) ज्ञाताधर्म अ० १२ । ज्ञाता २।१
के
अन्तगड वर्ग ४, अ० १
५. अन्तगड वर्ग ३, २०१
६ समवायांग प्रकीर्णक समवाय सूत्र म
- अंतगड ३ वर्ग अ० ६ --अंतगड ३ वर्ग अ० १
--अंतगड ६ वर्ग अ० १५