________________
अंगबाह्य आगम साहित्य
३५६
में
वर्षावास में विहार का निषेध है किन्तु हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु विहार का विधान है । जो प्रतिकूल क्षेत्र हों वहाँ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को बारम्बार विचरना निषिद्ध है क्योंकि संयम की विराधना होने की सम्भावना है। इसलिए प्रायश्चित्त का विधान है ।
गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए या शौचादि के लिए श्रमण बाहर जाय उस समय यदि कोई गृहस्थ वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि के लिए निमंत्रित करे तो उसे वस्त्रादि उपकरण लेकर आचार्य के सन्निकट उपस्थित होना चाहिए और आचार्य की अनुमति प्राप्त होने पर उसे रखना चाहिए । वैसे ही श्रमणी के लिए प्रवर्तिनी की आज्ञा आवश्यक है।
श्रमण श्रमणियों के लिए रात्रि के समय या असमय में आहारादि ग्रहण करने का निषेध किया गया है। इसी तरह वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण ग्रहण का निषेध है। अपवादरूप में यदि तस्कर श्रमण श्रमणियों के वस्त्र चुराकर ले गया हो और वे पुनः प्राप्त हो गये हों तो रात्रि में ले सकते हैं। यदि वे वस्त्र तस्करों ने पहने हों, स्वच्छ किये हों, रंगे हों या धूपादि सुगन्धित पदार्थों से वासित किये हों तो भी ग्रहण कर सकते हैं।
निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों को रात्रि के समय या विकाल में विहार का निषेध किया गया है । यदि उच्चार भूमि आदि के लिए अपवाद रूप में जाना ही पड़े तो अकेला न जाय किन्तु साधुओं को साथ लेकर जाय ।
निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों के विहार क्षेत्र की मर्यादा पर चिन्तन किया गया है। पूर्व में अंगदेश एवं मगध देश तक, दक्षिण में कोसाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा तक व उत्तर में कुणाला तक ये आर्यक्षेत्र हैं। आर्यक्षेत्र में विचरने से ज्ञान दर्शन की वृद्धि होती है। यदि अनार्यक्षेत्र में जाने पर रत्नत्रय की हानि की सम्भावना न हो तो जा सकते हैं।
द्वितीय उद्देशक में उपाश्रय विषयक १२ सूत्रों में बताया है कि जिस उपाश्रय में शाली, व्रीहि, मूंग, उड़द आदि बिखरे पड़े हों वहाँ पर श्रमण
किन्तु एक स्थान पर ढेर
श्रमणियों को किंचित् समय भी न रहना चाहिए रूप में पड़े हुए हों तो वहाँ हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में कोष्ठागार आदि में सुरक्षित रखे हुए हों तो कल्पता है ।
रहना कल्पता है। यदि वर्षावास में भी रहना
जिस स्थान पर सुराविकट, सौवीरविकट आदि रक्खे हों वहाँ