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३६० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा किंचित् समय भी साधु-साध्वियों को नहीं रहना चाहिए। यदि कारणवशात् अन्वेषणा करने पर भी अन्य स्थान उपलब्ध न हो तो श्रमण दो रात्रि रह सकता है, अधिक नहीं। अधिक रहने पर छेद या परिहार का प्रायश्चित्त आता है।
इसी तरह शीतोदकविकटकुंभ, उष्णोदकविकटकुंभ, ज्योति, दीपक, आदि से युक्त उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए।
इसी तरह एक या अनेक मकान के अधिपति से आहारादि नहीं लेना चाहिए। यदि एक मुख्य हो तो उसके अतिरिक्त शेष के यहाँ से ले सकते हैं। यहाँ पर शय्यातर मुख्य है जिसकी आज्ञा ग्रहण की है। शय्यातर के विविध पहलुओं पर चिन्तन किया गया है।
निग्रंथ-निर्ग्रन्थियों को जांगिक, भांगिक, सानक, पोतक और तिरिपट्टक ये पाँच प्रकार के वस्त्र लेना कल्पता है और औणिक, औष्ट्रिक, सानक, बच्चकचिप्पक, मुंजचिप्पक ये पांच प्रकार के रजोहरण रखना कल्पता है।
तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में बैठना, सोना, खाना, पीना, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग करना नहीं कल्पता । इसी प्रकार निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय आदि में बैठना, खानापीना आदि नहीं कल्पता। आगे के चार सूत्रों में चर्मविषयक, उपभोग आदि के सम्बन्ध में कल्पाकल्प की चर्चा है।
वस्त्र के सम्बन्ध में कहा है कि वे रंगीन न हों, किन्तु श्वेत होने
१ सुराविकटं पिष्टनिष्पन्नम्, सौवीरविकटं तु पिष्टवर्जेगुडादिद्रव्यनिष्पन्नम् ।
-क्षेमकीतिकृत वृत्ति, पृ० ९५२ २ 'छेदो वा' पंचरात्रिन्दिवादिः 'परिहारो वा' मासलधुकादिस्तपोविशेषो भवतीति
सूत्रार्थः। ३ जंगमाः प्रसाः तदवयवनिष्पन्नं जांगमिकम्, भंगा अतसी तन्मयं भांगिकम,
सनसूत्रमय सानकम्, पोतकं कासिकम् तिरीट: वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो वल्कल क्षणस्तन्निष्पन्नं तिरीटपट्टकं नाम पञ्चमम् ।
-उ०२, सू०२४ ४ 'औणिक' ऊरणिकानामूर्णाभिनितम्, 'औष्ट्रिक' उष्ट्ररोमभिनिवित्तम्, 'सानक'
सनवृक्षवल्काद् जातम्, 'बच्चकः' तृणविशेषस्तस्य "चिप्पकः' कुट्टितः स्वग्रूपः तेन निष्पन्न वच्चकचिप्पकम् 'मुजः'शरस्तम्बस्तस्य चिप्पकाद् जातं मुजचिप्पक नाम पञ्चममिति ।
--३०२, सू० २५