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३५८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा ११. आश्रम (जहाँ तपस्वी आदि रहते हों) १२. निवेश सन्निवेश (जहाँ सार्थवाह आकर उतरते हों) १३. सम्बाध-संबाह (जहाँ कृषक रहते हों अथवा अन्य गांव के लोग अपने
गाँव से धन आदि की रक्षा के निमित्त पर्वत, गुफा आदि में आकर
ठहरे हुए हों) १४. घोष (जहाँ गाय आदि चराने वाले गूजर लोग- ग्वाले रहते हों) १५. अंशिका (गाँव का अर्घ, तृतीय अथवा चतुर्थ भाग) १६. पूटभेदन (जहाँ पर गांव के व्यापारी अपनी चीजें बेचने आते हों)
नगर की प्राचीर के अन्दर और बाहर एक-एक मास तक रह सकते हैं । अन्दर रहते समय भिक्षा अन्दर से लेनी चाहिए और बाहर रहते समय बाहर से । श्रमणियाँ दो मास अन्दर और दो मास बाहर रह सकती हैं। जिस प्राचीर का एक ही द्वार हो वहाँ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को एक साथ रहने का निषेध किया है, पर अनेक द्वार हों तो रह सकते हैं ।
जिस उपाश्रय के चारों ओर अनेक दुकानें हों, अनेक द्वार हों वहाँ साध्वियों को नहीं रहना चाहिए किन्तु साधु यतनापूर्वक रह सकता है। जो स्थान पूर्णरूप से खुला हो, द्वार न हों वहाँ पर साध्वियों को रहना नहीं कल्पता। यदि अपवादरूप में उपाश्रय-स्थान न मिले तो परदा लगाकर रह सकती हैं। निर्ग्रन्थों के लिए खूले स्थान पर भी रहना कल्पता है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को कपड़े की मच्छरदानी (चिलिमिलिका) रखने व उपयोग करने की अनुमति प्रदान की गई है।
निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों को जलाशय के सन्निकट खड़े रहना, बैठना, लेटना, सोना, खाना-पीना, स्वाध्याय आदि करना नहीं कल्पता।
जहाँ पर विकारोत्पादक चित्र हों वहाँ पर श्रमण-श्रमणियों को रहना नहीं कल्पता।
मकान मालिक की बिना अनुमति के रहना नहीं कल्पता। जिस मकान के मध्य में होकर रास्ता हो-जहाँ गृहस्थ रहते हों, वहाँ श्रमणश्रमणियों को नहीं रहना चाहिए।
किसी श्रमण का आचार्य, उपाध्याय, श्रमण या श्रमणी से परस्पर कलह हो गया हो तो परस्पर क्षमायाचना करनी चाहिए। जो शांत होता है वह आराधक है । श्रमणधर्म का सार उपशम है-'उवसमसारं सामण्णं' ।