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२. बृहत्कल्प बृहत्कल्प का छेदसूत्रों में गौरवपूर्ण स्थान है। अन्य छेदसूत्रों की तरह इस सूत्र में भी श्रमणों के आचार-विषयक विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपवाद, तप, प्रायश्चित्त आदि पर चिन्तन किया गया है। इसमें छह उद्देशक हैं; ८१ अधिकार हैं; ४७३ श्लोकप्रमाण उपलब्ध मूलपाठ है। २०६ सूत्र संख्या है।
प्रथम उद्देशक में ५० सूत्र हैं। पहले के पांच सूत्र तालप्रलंब विषयक है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए ताल एवं प्रलंब ग्रहण करने का निषेध है। इसमें अखण्ड एवं अपक्व तालफल व तालमूल ग्रहण नहीं करना चाहिए किन्तु विदारित, पक्व ताल प्रलंब लेना कल्प्य है, ऐसा प्रतिपादित किया गया है, आदि-आदि ।
मासकल्प विषयक नियम में श्रमणों के ऋतूबद्ध काल-हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु के ८ महिनों में एक स्थान पर रहने के अधिकतम समय का विधान किया है। श्रमणों को सपरिक्षेप अर्थात् सप्राचीर एवं प्राचीर से बाहर निम्नोक्त १६ प्रकार के स्थानों में वर्षाऋतु के अतिरिक्त अन्य समय में एक साथ एक मास से अधिक ठहरना नहीं कल्पता। १. ग्राम (जहाँ राज्य की ओर से १८ प्रकार के कर लिये जाते हों) २. नगर (जहाँ १८ प्रकार के कर न लिए जाते हों) ३. खेट (जिसके चारों ओर मिट्टी की दीवार हो) ४. कर्बट (जहाँ कम लोग रहते हों) ५. मडम्ब (जिसके बाद ढाई कोस तक कोई गाँव न हो) ६. पत्तन (जहाँ सब वस्तुएँ उपलब्ध हों) ७. आकर (जहाँ धातु की खाने हों) ८. द्रोणमुख (जहाँ जल और स्थल को मिलाने वाला मार्ग हो, जहाँ समुद्री - माल आकर उतरता हो) ६. निगम (जहाँ व्यापारियों की वसति हो) १०. राजधानी (जहाँ राजा के रहने के महल आदि हों)