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अंगबाह्य आगम साहित्य ३४६ • शिष्य का गुरु के आगे, समश्रेणि में, अत्यन्त समीप में गमन करना, खड़ा होना, बैठना आदि; गुरु से पूर्व किसी से सम्भाषण करना, गुरु के वचनों की जानकर अवहेलना करना, भिक्षा से लौटने पर आलोचना न करना, आदि-आदि आशातना के तेतीस प्रकार हैं।
चतुर्थ उद्देशक में प्रकार की गणिसंपदाओं का वर्णन है। श्रमणों के समुदाय को गण कहते हैं । गण का अधिपति गणी होता है। गणिसम्पदा के आठ प्रकार हैं-आचारसम्पदा, श्रुतसम्पदा, शरीरसम्पदा, वचनसम्पदा, वाचनासम्पदा, मतिसम्पदा, प्रयोगमतिसम्पदा और संग्रहपरिज्ञासम्पदा।
आचारसम्पदा के-संयम में ध्रुवयोगयुक्त होना, अहंकाररहित होना, अनियतवृत्ति होना, वृद्धस्वभावी (अचंचलस्वभावी)-ये चार प्रकार हैं।
श्रुतसम्पदा के बहुश्रुतता, परिचितश्रुतता, विचित्रश्रुतता, घोषविशुद्धि कारकता-ये चार प्रकार हैं।
शरीरसम्पदा के शरीर की लम्बाई व चौड़ाई का सम्यक अनुपात, अलज्जास्पद शरीर, स्थिर संगठन, प्रतिपूर्ण इन्द्रियता-ये चार भेद हैं।
वचनसम्पदा के आदेयवचन-ग्रहण करने योग्य वाणी, मधुर वचन, अनिश्रित-प्रतिबन्धरहित, असंदिग्ध वचन-ये चार प्रकार हैं। . वाचनासम्पदा के विचारपूर्वक वाच्यविषय का उद्देश्य निर्देश करना, विचारपूर्वक वाचन करना, उपयुक्त विषय का ही विवेचन करना, अर्थ का सुनिश्चित रूप से निरूपण करना-ये चार भेद हैं।
__ मतिसम्पदा के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार प्रकार हैं।
अवग्रह मतिसम्पदा के क्षिप्रग्रहण, बहुग्रहण, बहुविधग्रहण, ध्रुवग्रहण, अनिश्रितग्रहण और असंदिग्धग्रहण-ये छह भेद हैं। इसी प्रकार ईहा और अवाय के भी छह-छह प्रकार हैं। धारणा मतिसम्पदा के बहधारण, बहुविधधारण, पुरातनधारण, दुर्द्धरधारण, अनिश्रितधारण और असंदिग्धधारण-ये छह प्रकार हैं।
प्रयोगमतिसम्पदा के स्वयं की शक्ति के अनुसार वाद-विवाद करना, परिषद को देखकर वाद-विवाद करना, क्षेत्र को देखकर वादविवाद करना, काल को देखकर वाद-विवाद करना-ये चार प्रकार हैं।