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________________ ३५० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा संग्रहपरिज्ञासम्पदा के वर्षाकाल में सभी मुनियों के निवास के लिए योग्यस्थान की परीक्षा करना, सभी श्रमणों के लिए प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक की व्यवस्था करना, नियमित समय पर प्रत्येक कार्य करना, अपने से ज्येष्ठ श्रमणों का सत्कार सन्मान करना-ये भेद हैं। गणिसम्पदाओं के वर्णन के पश्चात् तत्सम्बन्धी चतुर्विध विनयप्रतिपत्ति पर चिंतन करते हुए आचारविनय, श्रुतविनय, विक्षेपणाविनय और दोषनिर्घात विनय बताये हैं। यह चतुर्विध विनय प्रतिपत्ति है जो गुरुसम्बन्धी विनय प्रतिपत्ति कहलाती है। इसी प्रकार शिष्य सम्बन्धी विनय प्रतिपत्ति भी उपकरणोत्पादनता, सहायता, वर्णसंज्वलनता (गुणानुवादिता) भारप्रत्यवरोहणता है। इन प्रत्येक के पुन: चार-चार प्रकार हैं। इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में कूल ३२ प्रकार की विनय प्रतिपत्ति का विश्लेषण है। पांचवें उद्देशक में दश प्रकार की चित्तसमाधि का वर्णन है। धर्मभावना, स्वप्नदर्शन, जातिस्मरणज्ञान, देवदर्शन, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलमरण (निर्वाण)-इन दश स्थानों के वर्णन के साथ मोहनीय कर्म की विशिष्टता पर भी प्रकाश डाला है। छठे उद्देशक में ग्यारह प्रकार की उपासक प्रतिमाओं का वर्णन है। प्रतिमाओं के वर्णन के पूर्व मिथ्यादृष्टि के स्वभाव का चित्रण करते हए बताया है कि वह न्याय या अन्याय का किञ्चित् मात्र भी बिना ख्याल किये दंड प्रदान करता है। जैसे सम्पत्तिहरण, मुंडन, तर्जन, ताड़न, अंदुक बन्धन (सांकल से बांधना), निगडबन्धन, काष्ठबन्धन, चारकबन्धन (कारागृह में डालना), निगडयुगल संकुटन (अंगों को मोड़कर बाँधना), हस्त, पाद, कर्ण, नासिका, ओष्ठ, शीर्ष, मुख, वेद आदि का छेदन करना, हृदयउत्पाटन, नयनादि उत्पाटन, उल्लंबन (वृक्षादि पर लटकाना) घर्षण, घोलन, शूलायन (शुली पर लटकाना), शूलाभेदन, क्षारवर्तन (जख्मों आदि पर नमकादि छिड़कना) दर्भवर्तन (घासादि से पीड़ा पहुँचाना), सिंहपुञ्छन, वृषभपुञ्छन, दावाग्निदग्धन, भक्तपाननिरोध प्रभृति दंड देकर आनन्द का अनुभव करता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि आस्तिक होता है व उपासक बन एकादश प्रतिमाओं की साधना करता है। इन ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का वर्णन हम पूर्व अध्याय में उपासकदशांग के अन्तर्गत कर चुके हैं।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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