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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
सुवृष्टि और अप्रशस्त होने पर दुर्भिक्ष आदि । इस तरह इसमें सांस्कृतिक व सामाजिक वर्णन भी किया गया है। 2
• अनुयोगद्वार के रचियता या संकलनकर्ता आर्य रक्षित माने जाते हैं। आर्यरक्षित से पहले यह पद्धति थी कि आचार्य अपने मेधावी शिष्यों को छोटे-बड़े सभी सूत्रों की वाचना देते समय चारों अनुयोगों का उन्हें बोध करा देते थे। उस वाचना का क्या रूप था वह आज हमारे समक्ष नहीं है, तथापि इतना कहा जा सकता है कि वे वाचना देते समय प्रत्येक सूत्र पर आचारधर्म, उसके पालनकर्ता, उनके साधन क्षेत्र का विस्तार और नियम ग्रहण की कोटि एवं भंग आदि का वर्णन कर सभी अनुयोगों का एक साथ बोध कराते थे । इसी वाचना को अपृथक्त्वानुयोग कहा गया है। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि जब चरणकरणानुयोग आदि चारों अनुयोगों का प्रत्येक सूत्र पर विचार किया जाय तो वह अपृथक्त्वानुयोग है। पृथक्त्वानुयोग में विभिन्न नय दृष्टियों का अवतरण किया जाता है और उसमें प्रत्येक सूत्र पर विस्तार से चर्चा की जाती है।"
आर्य व स्वामी तक कालिक आगमों के अनुयोग (वाचना ) में अनुयोगों का अपृथक्त्व रूप रहा। उसके पश्चात् आर्यरक्षित ने कालिक श्रुत और दृष्टिवाद के पृथक् अनुयोग की व्यवस्था की। कारण कि आर्यरक्षित के धर्मशासन में ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी और वादी सभी प्रकार के सन्त थे । उन शिष्यों में पुष्यमित्र नाम के तीन विशिष्ट महामेधावी शिष्य थे । उनमें से एक का नाम दुर्बलिकापुष्यमित्र, दूसरे का घृतपुष्यमित्र और तीसरे का वस्त्रपुष्यमित्र था । घृतपुष्यमित्र और वस्त्रपुष्यमित्र की लब्धि का यह प्रभाव था कि प्रत्येक गृहस्थ के घर से श्रमणों को घृत और वस्त्र सहर्ष उपलब्ध होते थे । दुर्बलिकापुष्यमित्र निरन्तर स्वाध्याय में तल्लीन रहते थे । आर्यरक्षित के अन्य मुनि विन्ध, फल्गुरक्षित, गोष्ठामाहिल प्रतिभासम्पन्न शिष्य थे । उन्हें जितना सूत्रपाठ आचार्य से प्राप्त होता था उससे
१ 'नंदीसुतं अणुयोगदाराई' की प्रस्तावना, पृ० ५२ से ७०
२ अपुहुत्तमेगभावो सुत्ते सुते सुवित्थरं जत्थ । भन्नंतणुओगा चरणधम्मसंखाणदव्वाणं |
- आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, पृ० ३८३
(वही)
३ जावंति अज्जवइरा अपुहतं कालियाणुओगे य । तेणारेण पुत्तं कालियसुय दिट्टिवाये य ॥