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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य ३४५ उन्हें संतोष नहीं होता था अतः उन्होंने एक पृथक् वाचनाचार्य की व्यवस्था के लिए प्रार्थना की। आचार्य ने दुर्बलिकापुष्यमित्र को इसके लिए नियुक्त किया। कुछ दिनों के पश्चात् दुर्बलिकापुष्यमित्र ने आचार्य से निवेदन किया कि वाचना देने में समय लग जाने के कारण मैं पठितज्ञान का पुनरावर्तन नहीं कर पाता, अत: विस्मरण हो रहा है। आचार्य को आश्चर्य हुआ कि इतने मेधावी शिष्य की भी यह स्थिति है ! अतः उन्होंने प्रत्येक सूत्र के अनुयोग पृथक-पृथक् कर दिये । अपरिणामी और अतिपरिणामी शिष्य नय दृष्टि का मूलभाव नहीं समझकर कहीं कभी एकान्तज्ञान, एकान्तक्रिया, एकान्तनिश्चय अथवा एकान्तव्यवहार को ही उपादेय न मान लें तथा सूक्ष्म विषय में मिथ्याभाव नहीं ग्रहण करें एतदर्थ नयों का विभाग नहीं किया। अनुयोगद्वार का रचना समय वीर निर्वाण संवत् ५२७ से पूर्व माना गया है और कितने ही विद्वान् उसे दूसरी शताब्दी की रचना मानते हैं। आगम प्रभावक पुण्यविजयजी महाराज आदि का यह मन्तव्य है कि अनुयोग का पृथक्करण तो आचार्य आर्यरक्षित ने किया किन्तु अनुयोगद्वारसूत्र की रचना उन्होंने ही की हो ऐसा निश्चितरूप से नहीं कह सकते। १ (क) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, पृ० ३६६ (ख) प्रभावकचरित्र २४०-२४३, पृ० १७ (ग) ऋषिमंडलस्तोत्र २१०
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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