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८ जैन आगम साहित्य : मनन और मौमांसा हैं उसका किंचित् मात्र भी विरोध मूल जिनागम से नहीं होता । एतदर्थ ही बहत्कल्पभाष्य में कहा है कि--जिस बात को तीर्थंकर ने कहा है उस बात को श्रुतकेवली भी कह सकता है। श्रतकेवली भी केवली के सदृश ही होता है। उसमें और केवली में विशेष अन्तर नहीं होता । केवली समग्रतत्त्व को प्रत्यक्षरूपेण जानते हैं, श्रुतकेवली उसी समग्रतत्त्व को परोक्षरूपेण-श्रुतज्ञान द्वारा जानते हैं । एतदर्थ उनके वचन भी प्रामाणिक होते हैं। प्रामाणिक होने का एक कारण यह भी है कि चतुर्दश पूर्वधर और दश पूर्वधर साधक नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं। 'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं तथा 'णिग्गथे पावयणे अट्ठ, अयं परम8, सेसे अणठे' उनका मुख्य घोष होता है। वे सदा निर्ग्रन्थ प्रवचन को आगे करके ही चलते हैं। एतदर्थ उनके द्वारा रचित ग्रंथों में द्वादशांगी से विरुद्ध तथ्यों की संभावना नहीं होती, उनका कथन द्वादशांगी से अविरुद्ध होता है । अतः उनके द्वारा रचित ग्रन्थों को भी आगम के समान प्रामाणिक माना गया है । परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि उनमें स्वत: प्रामाण्य नहीं, परतः प्रामाण्य है। उनका परीक्षणप्रस्तर द्वादशांगी है । अन्य स्थविरों द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता का मापदण्ड भी यही है कि वे जिनेश्वर देवों की वाणी के अनुकूल हैं तो प्रामाणिक और प्रतिकूल हैं तो अप्रामाणिक । पूर्व और अंग
जैन आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण समवायांग में मिलता है। वहाँ आगम साहित्य का पूर्व और अंग के रूप में विभाजन किया गया है। पूर्व संख्या की दृष्टि से चौदह थे और अंग बारह ।
१ बृहत्कल्पभाष्य गा०९६३-६६६ २ बृहत्कल्पभाष्य गा० १३२ ३ आचारांग ॥१६३ उद्दे०५ ४ भगवती १५
चउदस पुब्वा प०२०-- .. उप्पाय पुबमग्गेणियं च तइयं च वीरियं पुव्वं । .
अत्थीनस्थि . पवायं तत्तो नाणप्पवायं च ॥ सच्चप्पवायपुव्वं तत्तो आयप्पवायपुष्वं च। कम्मप्पवायपुव्वं पच्चक्खाणं भवे नबमं ॥ .... विज्जाणुप्पवार्य अवंझपाणाउ बारसं पुथ्वं । तत्तो किरियविसालं पुवं तह बिंदुसारं च ॥ -समवायांग, समवाय १४ दुवालसंगे गणिपिडगे प० से--- आयारे, सूयगडे, ठाणे, समवाए, विवाहपन्नती, नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पहावागरणाई, विवागसुए, दिट्ठिवाए।
-समवायांग, समवाय १३६