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... जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन ७ निरूपित आगम भी प्रमाण रूप होते हैं।' गणधर केवल द्वादशांगी की ही रचना करते हैं। अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं।
यह भी माना जाता है कि गणधर सर्वप्रथम तीर्थंकर भगवान के समक्ष यह जिज्ञासा अभिव्यक्त करते हैं कि भगवन् ! तत्त्व क्या है ? (भगवं कि तत्तं ?) उत्तर में भगवान उन्हें 'उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा' यह त्रिपदी प्रदान करते हैं । त्रिपदी के फलस्वरूप वे जिन आगमों का निर्माण करते हैं वे आगम अंगप्रविष्ट कहलाते हैं, और शेष सभी रचनाएँ अंगबाह्य । द्वादशांगी अवश्य ही गणधरकृत है क्योंकि वह त्रिपदी से उद्भूत होती है किन्तु गणधरकृत समस्त रचनाएं अंग में नहीं आतीं। त्रिपदी के बिना जो मुक्त व्याकरण से रचनायें होती हैं वे चाहे गणधरकृत हों या स्थविरकृत, अंगबाह्य कहलाती हैं। ... स्थविर दो प्रकार के होते हैं:
(१) संपूर्ण श्रुतज्ञानी और (२) दशपूर्वी
सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी चतुर्दशपूर्वी होते हैं । वे सूत्र और अर्थरूप से सम्पूर्ण द्वादशांगी रूप जिनागम के ज्ञाता होते हैं । वे जो कुछ भी कहते हैं या लिखते
१ (क) सुतं गणहरकथिदं, तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च ।
सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्ण दसपुवकथिदं च ॥ -मुलाचार ५-८० (ख) जयधवला, पृ० १५३ ।।
(ग) ओधनियुक्ति, द्रोणाचार्य टीका, पृ० ३ । २ (क) विशेषावश्यक भाष्य गा० ५५०
(ख) बृहत्कल्पभाष्य १४४ (ग) तत्त्वार्थभाष्य १-२०
(घ) सर्वार्थसिद्धि १-२० ३ (क) यद् गणधरैः, साक्षाद् लब्धं तदंगप्रविष्टं तच्च द्वादशांगमेतत्पुनः स्थविर
भंद्रबाहु स्वामिप्रभृतिभिराचार्यरूपनिबद्ध तदनंगप्रविष्ट, तच्चावश्यक नियुक्त्यादि । अथवा वारत्रयं गणधरपृष्ठेन सता भगवता तीर्थकरेण यत्प्रत्युच्यते 'उप्पन्नेह वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा' इति यत्त्रयं तदनुसुत्प यन्निष्पन्नं तदंगप्रविष्ट, यत् पुनर्गणधर प्रश्न व्यतिरेकेण शेषकृत प्रश्नपूर्वकं वा भगवतो व्युत्कलं व्याकरणं तदधिकृत्य यनिष्पन्नं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्त्यादि, यच्च वा गणधर वास्येवोपजीव्यहब्धमावश्यक नियुक्त्यादि पूर्वस्थविरैस्तदंगप्रविष्टं
"सर्वपक्षेषु द्वादशांगानामांगप्रविष्टं शेषमनंगप्रबिष्टं । (ख) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति, पत्र ४८