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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
आप्त हैं और उनका उपदेश एवं वाणी ही जैनागम है; क्योंकि उनमें वक्ता के साक्षात् दर्शन एवं वीतरागता के कारण दोष की संभावना नहीं होती और न पूर्वापर विरोध तथा युक्ति-बाघ ही होता है ।
नियुक्तिकार भद्रबाहु कहते हैं- ' तप-नियम-ज्ञान रूप वृक्ष के ऊपर आरूढ़ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान भव्यात्माओं के विबोध के लिए ज्ञानकुसुमों की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धि-पट में उन सकल कुसुमों को झेलकर प्रवचनमाला गंथते हैं । २
तीर्थंकर केवल अर्थरूप में उपदेश देते हैं और गणधर उसे ग्रन्थबद्ध या सूत्रबद्ध करते हैं।' अर्थात्मक ग्रंथ के प्रणेता तीर्थंकर होते हैं। एतदर्थ आगमों में यत्र-तत्र 'तस्स णं अयमटु पण्णत्ते, (समवाय) शब्द का प्रयोग हुआ है । जैन आगमों को तीर्थंकर प्रणीत कहा जाता है।" यहाँ पर यह विस्मरण नहीं होना चाहिए कि जैनागमों की प्रामाणिकता केवल गणधरकृत होने से ही नहीं है अपितु उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता एवं सर्वार्थं साक्षात्कारित्व के कारण हैं ।
जैन अनुश्रुति के अनुसार गणधर के समान ही अन्य प्रत्येक बुद्ध
१ (क) जं णं इमं अरिहंतेहि भगवंतेहि उप्पण्णणाण-दंसण-धरेहितीय-पच्चुप्पण्ण- जाहि तिलुक्कवहित महितपुइएहिं सव्वष्णू हि सव्वदरिसीहि यणीयं दुवालसंग गणिपिडगं तं जहा आयारो जाव दिट्ठवाओ।
- अनुयोगद्वार सूत्र ४२
(ख) नन्दीसूत्र ४०/४१
(ग) बृहत्कल्प भाष्य गा० ८८
२ तव नियमनाणरुवखं आरूढो केवली अमियनाणी । तो मुयइ नाणवुट्ठिं भवियजण विबोहणट्ठाए || तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिव्हिउं निरवसेसं । तित्ययरभासियाई गंयंति त ओ पवयणट्ठा ॥
- आवश्यक नियुक्ति गा० ८०-९० गणहरा निउणं ।
३ (क) अत्यं मासइ अरहा, सुत्तं गन्थन्ति सासणस्स हिपट्टाए तओ सुतं
(ख) धवला भाग १ ए० ६४ तथा ७२ ४ नदीसूत्र ४०
पवतइ ॥
-आवश्यक नियुक्ति गा० १६२