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int आगम साहित्य ३३७ होते हैं । प्रस्तुत अंगुल के प्रमाण से छह अंगुल का अर्द्धपाद, १२ अंगुल का पाद, २४ अंगुल का १ हस्त, ४८ अंगुल की १ कुक्षि, ६ अंगुल का १ धनुष्य होता है। इसी धनुष्य के प्रमाण से दो हजार धनुष्य का १ कोश और ४ कोश का १ योजन होता है। उत्सेधांगुल का प्रयोजन ४ गतियों के प्राणियों की अवगाहना नापना है। यह अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रूप से दो प्रकार की होती है। जैसे नरक में जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है और उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष्य प्रमाण है और उत्तरवैक्रिया करने पर जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार धनुष्य होती है। इस तरह उत्सेधांगुल का प्रमाण स्थायी, निश्चित और स्थिर है । उत्सेधांगुल से एक हजार गुना अधिक प्रमाणांगुल होता है। वह भी उत्सेधांगुल के समान निश्चित है। अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ और उनके पुत्र भरत के अंगुल को प्रमाणांगुल माना गया है । अन्तिम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर के एक अंगुल के प्रमाण में दो उत्सेधांगुल होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो उनके ५०० अंगुल के बराबर १००० उत्सेधांगुल अर्थात् १ प्रमाणांगुल होता है। इस प्रमाणांगुल से अनादि पदार्थों का नाप ज्ञात किया जाता है। इससे बड़ा अन्य कोई अंगुल नहीं है ।
कालप्रमाण प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न रूप से दो प्रकार का है । एक समय की स्थिति वाले परमाणु या स्कन्ध आदि का काल प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण कहलाता है। समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन, अहोरात्रि, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्य, सागर, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, परावर्तन, आदि को विभागनिष्पन्न कालप्रमाण कहा गया है। समय बहुत ही सूक्ष्म कालप्रमाण है । इसका स्वरूप प्रतिपादित करते हुए वस्त्र विदारण का उदाहरण दिया है। असंख्यात समय की एक आवलिका, संख्यात आवलिका का एक उच्छ्वासनिश्वास, प्रसन्नमन, पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति के एक श्वासोच्छ्वास को प्राण कहते हैं । सात प्राणों का १ स्तोक, ७ स्तोकों का १ लव, उसके पश्चात् शीर्षप्रहेलिका पल्योपम, सागरोपम की संख्या तक प्रकाश डाला है जिसका हम अन्य आगमों के विवेचन में उल्लेख कर चुके हैं। इस कालप्रमाण से चार गतियों के जीवों के आयुष्य पर विचार किया गया है।
भावप्रमाण ३ प्रकार का है— गुणप्रमाण, नय-प्रमाण और संख्याप्रमाण । गुणप्रमाण - जीवगुणप्रमाण और अजीवगुणप्रमाण इस तरह से